राकेश सोहम्
एक समारोह के दौरान कुछ लोग साथ खड़े होकर चाय पी रहे थे। एक व्यक्ति की चाय खत्म हो गई थी। दूसरे व्यक्ति ने वह खाली कागज के एकल उपयोग वाला कप ले लिया और जहां वे खड़े थे, वहीं अपने सहित दोनों कप फर्श पर फेंक दिया। हालांकि कचरापेटी पास ही थी। कोई भी होशमंद व्यक्ति यही चाहेगा कि खाली कप को कचरे के डिब्बे के हवाले किया जाए।
जिनके हाथ से कप लेकर कचरा पेटी की जगह लापरवाही से यों ही फेंक दिया गया, वे विदेश में लंबा समय व्यतीत करके लौटे थे। साफ-सफाई के मामले में विकसित देश जागरूक हैं। निजी स्थल हों या सार्वजनिक जगहें, स्वच्छता दिखाई देती है। ज्यादातर देशों में नागरिक दायित्वबोध भी विकसित हुआ है। अपवादों को छोड़ दिया जाए तो लोग इस बात को मानते हैं कि आसपास के वातावरण की स्वच्छता की जिम्मेदारी उनकी अपनी है।
कोई दूसरा गंदगी फैलाने की कोशिश न करे, लोग यह भी ध्यान रखते हैं। बच्चों को बचपन में ही स्कूलों में पढ़ाई के बजाय नागरिक कर्तव्यों और नैतिक व्यवहार की शिक्षा दी जाती है। बच्चों बताया जाता है कि किसी से चीख-चिल्लाकर बात न करें। जब कोई बोले तो उसकी बातों को ध्यान से सुनें, बीच में न बोलें। किसी को तकलीफ न पहुंचाएं।
सार्वजनिक स्थानों जैसे रास्तों, होटलों, दुकानों या बाग-बगीचों में नियमों का पालन करते हुए स्वच्छता का ध्यान रखें। धैर्यपूर्वक पंक्ति में खड़े रहें। धक्का-मुक्की न करें। सामने वाले व्यक्ति से समुचित दूरी बनाकर रखें। अपनी बारी आने की प्रतीक्षा करें। बुजुर्ग व्यक्तियों और गर्भवती महिलाओं का सहयोग और सम्मान करें। उन्हें प्राथमिकता दें। रास्तों पर न थूकें। कचरे को निर्धारित जगहों पर ही डालें। फिर से उपयोग में आने वाले कचरे को अलग डिब्बे में डालें। सफाई कर्मियों, दमकल कर्मियों, चिकित्सक और नर्स का सम्मान करें।
यों सिखाया और बताया तो हमारे यहां भी जाता है, लेकिन इसका खयाल रखना जरूरी नहीं समझा जाता। विदेशों में लोग राह चलते पानी की खाली प्लास्टिक की बोतलों को हमारी तरह यों ही नहीं फेंक देते। अपने पास रख लेते हैं और उचित जगह कचरापेटी में ही फेंकते हैं। चाकलेट, आइसक्रीम, भोजन आदि के कागज के डिब्बे, ढक्कन, चम्मच या खाली पैक को निर्धारित कचरा पेटियों में डालते हैं। कुत्तों को पालने के शौकीन, सुबह-शाम उन्हें घुमाने निकलते हैं तो कुत्ते की गंदगी को पोलिथीन बैग में उठाकर कचरापेटी में फेक देते हैं। रास्तों पर चलने वाले लोग बिना शर्म गलती से पड़े कचरे को उठाकर कचरा पेटियों के हवाले कर देते हैं।
हममें से शायद ही कोई ऐसा हो, जो इन बातों को बेमानी कवायद कहे। आजकल बहुत सारे लोग इसे एक जरूरी आम व्यवहार के तौर पर देखते हैं। उनमें से कई लोग ऐसा करते भी हैं। लेकिन यह आम नहीं है। व्यवस्थाओं का न होना एक बात है, लेकिन व्यवस्था होते हुए भी उनका उपयोग न करना या गलत तरीके से उपयोग करना अपने साथ ही गलत है। हमारे यहां लोग मान कर चलते हैं कि गंदगी फैलाना हमारा अघोषित अधिकार है और स्वच्छता निर्धारित करना सरकार का कर्तव्य। लोग यह भी आरोप लगाते हैं कि हमसे कर किस बात का वसूला जाता है। सफाई कर्मचारी तनख्वाह किस बात की लेते हैं?
ऐसे लोग अपनी नकारा मानसिकता से जग को खरीद लेना चाहते हैं। फिर चाहे उन्हें खुद कितनी ही गंदगी और कठिनाइयों में रहना पड़े, फर्क नहीं पड़ता। हम व्यवस्थाओं और सुविधाओं की मांग का ढोल पीटना जानते हैं, लेकिन उपलब्ध व्यवस्थाओं से तालमेल बैठाने में लापरवाह हो जाते हैं। शहरों में स्टील और प्लास्टिक की कचरा पेटियां लगार्इं जाती हैं। लेकिन बहुत सारे लोगों को उसी में कचरा फेंकना जरूरी नहीं लगता। कई बार तो खाली कचरा पेटियों को चोर उखाड़कर भी ले जाते हैं।
लोगों को ‘यहां तो ऐसे ही चलता है’ की सोच से ऊपर उठना होगा। ऐसी मानसिकता बदलनी चाहिए, क्योंकि सोच का स्वच्छता से गहरा संबंध होता है। एक बार कुछ लोग परदेश में अपनी कार से दूसरे शहर जा रहे थे। रास्ते में साढ़े तीन साल के बालक को जोर से पेशाब लग गई। रास्ता काफी लंबा और सूना था। कार को एक किनारे रोककर बालक से कहा गया कि वह रास्ते के किनारे पेशाब कर ले। उसने इनकार कर दिया। बहुत समझाने पर भी नहीं माना। उसका कहना था कि उसकी शिक्षक ने बताया है कि ऐसा करना गलत है। वह तकलीफ में रहा, लेकिन धैर्यपूर्वक जगह आने की प्रतीक्षा करता रहा।
कुल मिलाकर, बच्चों को पढ़ाई-लिखाई के पूर्व नैतिक शिक्षा देना चाहिए। सर्वप्रथम सोच का समीकरण हल करने की आवश्यकता है, स्वच्छता के परिणाम अपने आप आने शुरू हो जाएंगे। स्वच्छता के लिए ‘हम सुधरेंगे, युग सुधरेगा’ और ‘हम बदलेंगे, युग बदलेगा’ वाले उद्घोष का पालन करना होगा।