योगेश कुमार गोयल
रेल दुर्घटनाओं पर लगाम न लग पाने का बहुत बड़ा कारण है रेल पटरियों की जर्जर हालत, जिन पर सरपट दौड़ती रेलें कब किस जगह बड़े हादसे का शिकार हो जाएं, कहना मुश्किल है। एक ओर जहां पुरानी पटरियों पर तेज रफ्तार गाड़ियां दौड़ रही हैं, वहीं देशभर में लगभग सभी स्थानों पर पटरियां अपनी क्षमता से कई गुना ज्यादा बोझ उठा रही हैं।
बीते महीने दो बड़े रेल हादसे हो गए। महीने के पहले पखवाड़े में बिहार के बक्सर में रघुनाथपुर स्टेशन पर और तीन दिन पहले आंध्र प्रदेश के विजयनगर में। इनमें सैकड़ों घायल हुए और कइयों की मौत हो गई। रेलवे को जो नुकसान हुआ, सो अलग। चिंता का विषय है कि रेल दुर्घटनाएं रोकने के लिए वर्षों से ‘मिशन जीरो एक्सीडेंट’ का राग अलापा जा रहा है, मगर दुर्घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रहीं।
2016-17 के रेल बजट में तत्कालीन रेलमंत्री ने रेल दुर्घटनाएं रोकने के लिए ‘मिशन जीरो एक्सीडेंट’ नामक विशेष अभियान की घोषणा की थी। उसके बाद रेल दुर्घटनाओं पर अंकुश लगाने के लिए त्वरित पटरी नवीकरण, अल्ट्रासोनिक रेल पहचान प्रणाली तथा प्राथमिकता के आधार पर मानवरहित रेलवे क्रासिंग बनाने जैसे विभिन्न सुरक्षा उपायों पर काम शुरू किया गया था, मगर इन कामों की गति बहुत धीमी है।
रेल तंत्र की लापरवाही के चलते लगातार हो रहे रेल हादसों की फेहरिस्त बहुत लंबी है, लेकिन निरंतर होते हादसों से कोई खास सबक नहीं लिए जाते। जब भी कोई बड़ा हादसा होता है, तो सरकार और रेलवे द्वारा भविष्य में ऐसे हादसों की पुनरावृत्ति रोकने के लिए कड़े कदम उठाने का रटा-रटाया बयान सुनाई देने लगता है। फिर थोड़े ही समय बाद जब कोई रेल हादसा सामने आता है, तो रेल तंत्र के दावों की कलई खुल जाती है।
ऐसे रेल हादसों के बाद प्राय: जांच के नाम पर कुछ रेल कर्मचारियों और अधिकारियों पर गाज गिरती है, पर समूचा रेल तंत्र उसी पुराने ढर्रे पर रेंगता रहता है। हर दुर्घटना के बाद जांच के आदेश दिए जाते और जांच के लिए उच्चस्तरीय समिति गठित की जाती है, मगर समिति की रिपोर्ट फाइलों में दबकर रह जाती है। रेल हादसों में हर बार हताहतों की चीखें समूचे रेल तंत्र को कठघरे में खड़ा करती रही हैं, लेकिन उसके बावजूद रेल हादसों पर लगाम नहीं कसी जा रही।
लोकसभा में एक प्रश्न के उत्तर में सरकार द्वारा बताया गया था कि 2014 से 2023 के दौरान हर वर्ष औसतन 71 रेल दुर्घटनाएं हुईं और यह स्थिति तब है, जब सरकार द्वारा रेल सेवाओं में बेहतरी के लिए आधुनिक और तकनीकी पहलू से हर स्तर पर काम करने का दावा किया जाता रहा है। हालांकि यह बात सही है कि 2014 से पहले के दस वर्षों में हुई रेल दुर्घटनाओं के मुकाबले बाद के नौ वर्षों में रेल हादसों में कमी आई है, लेकिन फिर भी मौजूदा तस्वीर को संतोषजनक नहीं माना जा सकता। अब भी ऐसे हालात बन जाते हैं, जिनमें बालासोर जैसी हृदय विदारक रेल घटनाएं सामने आ जाती हैं। छोटे-बड़े हादसे तो प्राय: होते ही रहते हैं।
केंद्र सरकार द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक मानवीय विफलताओं के कारण होने वाली दुर्घटनाओं को समाप्त करने के लिए मई 2023 तक 6427 स्टेशनों पर ‘सिग्नल’ और ‘प्वाइंट’ के केंद्रीकृत परिचालन वाली ‘इलेक्ट्रिकल’ और ‘इलेक्ट्रानिक इंटरलाकिंग’ प्रणाली की व्यवस्था की गई है, इसके अलावा 11043 समपार फाटकों पर ‘इंटरलाकिंग’ का प्रबंध किया गया है, लेकिन करीब सवा चार महीने पहले बालासोर में तीन ट्रेनों के आपस में टकरा जाने का जो भयानक हादसा हुआ था, उसमें शुरुआती तौर पर यांत्रिक गड़बड़ियों और मानवीय त्रुटियों को ही जिम्मेदार बताया गया था।
रेल मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक 2019 से पहले के साढ़े चार वर्षों में ही साढ़े तीन सौ से भी अधिक छोटे-बड़े हादसे हुए थे। रेलवे और यात्री सुरक्षा से जुड़े एक सवाल के जवाब में संसद में बताया गया था कि रेल हादसों की बड़ी वजह रेल कर्माचारियों की नाकामी, सड़क पर चलने वाली गाड़ियां, मशीनों की खराबी और तोड़-फोड़ रही।
रेल दुर्घटनाओं पर लगाम न लग पाने का बहुत बड़ा कारण है रेल पटरियों की जर्जर हालत, जिन पर सरपट दौड़ती रेलें कब किस जगह बड़े हादसे का शिकार हो जाएं, कहना मुश्किल है। एक ओर जहां पुरानी पटरियों पर तेज रफ्तार गाड़ियां दौड़ रही हैं, वहीं देशभर में लगभग सभी स्थानों पर पटरियां अपनी क्षमता से कई गुना ज्यादा बोझ उठा रही हैं।
भारतीय रेलवे के करीब 1219 रेलखंडों में से करीब 40 फीसद पर गाड़ियों का जरूरत से ज्यादा बोझ है। एक रिपोर्ट के मुताबिक 247 रेलखंडों में से करीब पैंसठ फीसद तो अपनी क्षमता से सौ फीसद से अधिक बोझ उठाने को मजबूर हैं और कुछ रेलखंडों में पटरियों की कुल क्षमता से 220 फीसद तक ज्यादा गाड़ियों को चलाया जाता रहा है। इस वजह से भी अनेक हादसे होते हैं।
रेल मंत्रालय को उन मूल कारणों का उपचार करना होगा, जिनके चलते ऐसे हादसे निरंतर सामने आते रहे हैं। भारतीय रेलों में प्रतिदिन सवा करोड़ से ज्यादा लोग सफर करते हैं, लेकिन यात्रियों के बढ़ते बोझ के बावजूद रेल पटरियों को उतना नहीं बढ़ाया गया, जितनी आवश्यकता थी। रेलवे की स्थायी समिति ने अपनी सुरक्षा रिपोर्ट में स्पष्ट किया है कि वर्ष 1950 से 2016 के बीच दैनिक रेल यात्रियों में जहां 1344 फीसद की वृद्धि हुई, वहीं माल ढुलाई में 1642 फीसद की बढ़ोतरी हुई, लेकिन इसके विपरीत रेल पटरियों का विस्तार महज 23 फीसद हो सका था। वर्ष 2000 से 2016 के बीच दैनिक यात्री ट्रेनों की संख्या में भी करीब 23 फीसद की बढ़ोतरी हुई।
यात्री रेलों के अलावा अधिकांश मालगाड़ियां भी पटरियों पर अपनी क्षमता से कहीं अधिक भार लिए दौड़ रही हैं। रेल नियमावली के अनुसार मौजूदा पटरियों पर 4800 से 5000 टन भार की मालगाड़ियां ही चलाई जा सकती हैं, लेकिन पिछले कई वर्षों से सभी ट्रैकों पर 5200 से 5500 टन भार के साथ मालगाड़ियां दौड़ रही हैं। कैग ने एक रिपोर्ट में ‘ओवरलोडेड’ मालगाड़ियों के परिचालन पर आपत्ति जताते हुए उन पर प्रतिबंध लगाने का सुझाव दिया था, मगर उन महत्त्वपूर्ण सुझावों को रद्दी की टोकरी में डाल दिया गया।
बहरहाल, हादसों के मद्देनजर रेलवे आधारभूत ढांचे की युद्धस्तर पर मरम्मत करने और नए तकनीकी उपकरणों का उपयोग करने के साथ-साथ ट्रेन चालकों के लिए नियमित प्रशिक्षण और सुरक्षा के बारे में जागरूकता बढ़ाने की सख्त जरूरत है। हैरानी की बात है कि जिस ‘कवच’ प्रणाली को रेल दुर्घटनाएं रोकने में बेहद प्रभावी माना जा रहा है, उसे अभी तक देश के समूचे रेल नेटवर्क के महज दो फीसद हिस्से में लागू किया जा सका है।
हालांकि यह सुरक्षा प्रणाली हर प्रकार के रेल हादसों को नहीं रोक सकती, लेकिन सतर्कता के अभाव में मानवीय भूल के कारण होने वाली दुर्घटनाओं पर लगाम लगाने के लिए तीव्र गति से कवच प्रणाली का दायरा बढ़ाना अत्यंत आवश्यक है। इसके साथ ही रेल हादसों को रोकने के अन्य जरूरी प्रबंध भी करने होंगे।
रेलवे सुरक्षा के मामले में नई नीतियों को अद्यतन करने की आवश्यकता है, ताकि ऐसे हादसों को रोका और जान-माल के नुकसान को न्यूनतम किया जा सके। रेल दुर्घटनाओं के कारण जो भी हों, रेल यात्रा को सुरक्षित और भरोसेमंद बनाने के लिए हर छोटी से छोटी दुर्घटना के कारणों की तह तक जाना और रेल हादसों को लेकर ‘जीरो टालरेंस’ की नीति पर दृढ़ता से अमल करना अब समय की बड़ी मांग है।
सूचना के अधिकार के तहत सामने आई एक जानकारी के अनुसार रेल विभाग में करीब पौने तीन लाख पद रिक्त हैं, जिनमें से करीब पौने दो लाख पद तो केवल सुरक्षा श्रेणी के हैं। रेल हादसों पर लगाम लगाने और रेलों की सुरक्षा के लिए इन पदों को शीघ्रातिशीघ्र भरा जाना बेहद जरूरी है।