सत्येंद्र किशोर मिश्र
समावेशी और सतत विकास के लिए श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी तथा अच्छे काम के साथ बेहतर कमाई तक उनकी पहुंच जरूरी है। पर भारतीय अर्थव्यवस्था में मजबूत आर्थिक विकास तथा बढ़ती आय और मजदूरी के बावजूद, महिलाओं की श्रमबल भागीदारी बहुत कम है। महिलाओं की भागीदारी के बगैर, समाज की समग्र सामाजिक-आर्थिक प्रगति रुक जाती है। महिलाओं के सशक्तीकरण के माध्यम से ही समाज अपना विकास सुनिश्चित कर सकता है।
आर्थिक विकास की एक प्रमुख समस्या श्रम बाजार में महिलाओं की गैर-आनुपातिक भागीदारी तथा लिंग असमानता है। भारत में महिलाओं के श्रम बाजार में प्रवेश, रोजगार तक पहुंच तथा बेहतर कमाई के समान अवसर प्राप्त करने में अनेक दिक्कतें हैं। महिलाओं की रोजगार तक पहुंच, कार्य दशाएं और परिस्थितियां, रोजगार सुरक्षा, असमान वेतन, काम और पारिवारिक जिम्मेदारियां, भेदभाव जैसी ढेरों चुनौतियां हैं।
इसी वर्ष अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त प्रोफेसर क्लाउडिया गोल्डिन ने महिलाओं की कमाई तथा श्रम बाजार में भागीदारी संबंधी ऐतिहासिक आंकड़ों का विश्लेषण कर बताया कि वैश्विक श्रम बाजार में महिलाओं का प्रतिनिधित्व तथा पुरुषों की तुलना में कमाई भी कम है। गोल्डिन के अनुसार, जहां महिलाओं का रोजगार बहुत अधिक है, वहां भी आय में असमानताएं हैं। श्रमबल में भागीदारी तथा वेतन में अंतर जैविक कारणों से नहीं, बल्कि परिवारिक अवैतनिक जिम्मेदारियों के कारण है। दरअसल, महिला श्रमबल भागीदारी दर अर्थव्यवस्था तथा सांस्कृतिक मूल्यों से संबंधित होती है।
वैश्विक महिला श्रमबल भागीदारी दर पिछले तीन दशक से 52 फीसद के इर्द-गिर्द है। पर अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन के अनुसार विकासशील अर्थव्यवस्थाओं में महिला श्रमबल भागीदारी में अत्यधिक भिन्नता है। उत्तरी अफ्रीका, मध्यपूर्व तथा दक्षिण एशिया में एक तिहाई से भी कम महिलाएं कामकाज में भाग लेती हैं, जबकि पूर्वी एशिया तथा उप-सहारा अफ्रीका में यह अनुपात अमूमन दो-तिहाई है। यह भिन्नता सांस्कृतिक मूल्यों, स्थान तथा रूढ़िवादी सोच के साथ-साथ सामाजिक-आर्थिक विकास दर, बढ़ती शैक्षिक उपलब्धि, गिरती प्रजनन दर सहित अनेक वजहों से है। विकासशील देशों में श्रम बाजार में लैंगिक असमानताएं अधिक हैं, पर दक्षिण एशियाई देशों में सर्वाधिक है। जबकि वैश्विक पुरुष श्रमबल भागीदारी वर्तमान दर समस्त अर्थव्यवस्थाओं में 80 फीसद के साथ लगभग एक समान है।
वर्ष 2023 में भारत में श्रमबल भागीदारी दर 42.4 फीसद है, जो वर्ष 2022 के 41.3 फीसद से अधिक है। भारत में श्रमबल भागीदारी दर का औसत 1990 से 2023 के मध्य 54.2 फीसद है। यह वर्ष 2000 में 57.2 फीसद के सार्वकालिक उच्च स्तर के साथ वर्ष 2018 में 36.9 फीसद के निचले स्तर पर पहुंच गया था। पर भारत में महिला श्रमबल भागीदारी के रुझान हैरान करने वाले हैं। यह 1993 में 44.2 फीसद तथा 2004 में 44 फीसद के साथ लगभग स्थिर रही, पर 2011 में घटकर 32.8 फीसद तथा 2017 में न्यूनतम स्तर पर 24.8 फीसद रह गई, जो बाद में बढ़कर वर्ष 2022 में 39.2 फीसद हुई। पुरुष तथा महिला श्रमबल भागीदारी दरों के मध्य अंतर वर्ष 1993 में 49.5 फीसद से बढ़ कर 2022 में 52.5 फीसद हो गया।
नवीनतम वार्षिक पीएलएफएस रपट के अनुसार, देश में कामकाजी महिलाओं की श्रमबल भागीदारी 2017 की न्यूनतम 24.8 फीसद से सुधर कर 2019-20, 2020-21 और 2021-22 के दौरान क्रमश: 30.0 फीसद, 32.5 फीसद और 32.8 फीसद हो गई। ग्रामीण महिलाओं की भागीदारी दर 2009-10 के 26.5 फीसद से घटकर 2011-12 में 25.3 फीसद हो गई, जबकि इसी अवधि में शहरी महिलाओं की भागीदारी दर 14.6 फीसद से बढ़कर 15.5 फीसद हो गई। 2011-12 के आंकड़े बताते हैं कि ग्रामीण क्षेत्रों में कम महिलाएं काम पर थीं, अगर काम में थीं, तो भी उनके सहायक या सीमांत रोजगार में थी।
भारत में महिला श्रमबल भागीदारी के गिरते रुझान के कारणों में महिलाओं का बढ़ता शैक्षिक नामांकन, प्रजनन दर, विवाह की आयु, आर्थिक विकास तथा शहरीकरण, रोजगार के अवसरों की कमी, गलत माप तथा पारिवारिक आय के प्रभाव शामिल हैं। लड़कियों की शिक्षा में काफी प्रगति हुई है, कामकाजी महिलाओं की संख्या भी बढ़ी है। पर देश में, खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में, ऐसी नौकरियां पैदा नहीं हुईं, जो महिलाओं को आसानी से नियोजित कर सकें। अपर्याप्त रोजगार सृजन के बावजूद, घरेलू आय में वृद्धि हुई, जिससे सहायक गतिविधियों में महिलाओं की भागीदारी घटी है।
हालांकि, भारत में अधिकांश महिलाएं किसी न किसी रूप में अर्थव्यवस्था में योगदान देती हैं, लेकिन आधिकारिक आंकड़ों में वे दर्ज नहीं होती हैं। अनेक महिलाएं घरेलू कार्यों को ही अपना कार्य बताती हैं। 2011-12 में 35.3 फीसद ग्रामीण महिलाएं तथा 46.1 फीसद शहरी महिलाएं घरेलू कार्यों में थीं, जबकि 1993-94 में यह दर क्रमश: 29 फीसद तथा 42 फीसद थी। इसलिए, आधिकारिक आकंड़ों में दर्ज न हो सकने के कारण महिला श्रमबल भागीदारी दर की गलत माप आंकड़ों की प्रवृत्ति को प्रभावित करता है। इन सबके बावजूद महिला श्रमबल भागीदारी बढ़ाने तथा कमाई में लैंगिक असमानता से निपटना जरूरी है। भारत में श्रमबल में भागीदार 16.6 करोड़ महिलाओं में से 90 फीसद असंगठित क्षेत्र में नियोजित हैं, जहां उनके शोषण का जोखिम अधिक तथा सामाजिक सुरक्षा उपाय अपर्याप्त हैं।
ऐसे में नीति निर्माताओं को शिक्षा और प्रशिक्षण कार्यक्रमों, कौशल विकास, बाल देखभाल तक पहुंच, मातृत्व सुरक्षा और प्रावधान आदि के जरिए महिलाओं के प्रति श्रम बाजार में सुधार के लिए व्यापक नजरिया अपनाना चाहिए। हालांकि सरकार ने श्रमबल में महिलाओं की भागीदारी और उनके रोजगार की गुणवत्ता में सुधार के लिए अनेक कदम उठाए हैं। महिला औद्योगिक प्रशिक्षण संस्थानों, राष्ट्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों और क्षेत्रीय व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थानों के माध्यम से उन्हें प्रशिक्षण प्रदान किया जा रहा है।
महिला श्रमिकों के लिए समान अवसर तथा अनुकूल कार्य वातावरण के लिए श्रम कानूनों में सुरक्षात्मक प्रावधान शामिल किए गए हैं। सामाजिक सुरक्षा संहिता, 2020 में सवैतनिक मातृत्व अवकाश को 12 सप्ताह से बढ़ाकर 26 सप्ताह करने, पचास या अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों में अनिवार्य क्रेच सुविधा, पर्याप्त सुरक्षा उपायों के साथ रात्रिकालीन पाली में महिला श्रमिकों को अनुमति आदि प्रावधान हैं। व्यावसायिक सुरक्षा, स्वास्थ्य और काम करने की स्थिति संहिता, 2020 में महिला श्रमिकों के लिए श्रम सुरक्षा, श्रम कल्याण तथा बेहतर कार्य दशाओं की व्यवस्था है।
वेतन संहिता 2019 में प्रावधान है कि किसी प्रतिष्ठान में नियोक्ता द्वारा वेतन से संबंधित मामलों में, समान कार्य या समान प्रकृति के काम में लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा। नियोक्ता किसी भी कर्मचारी को समान काम या रोजगार की शर्तों में समान प्रकृति के काम के लिए भर्ती करते समय लिंग के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा, सिवाय इसके कि ऐसे काम में महिलाओं का रोजगार किसी कानून के तहत निषिद्ध या प्रतिबंधित है।
महिला श्रमबल भागीदारी दर तथा कमाई में समानता को बढ़ाने के लिए लिंग-विशिष्ट बाधाओं को दूर करने की कोशिशें जरूरी हैं। पर मकसद महिला श्रमबल भागीदारी को बढ़ाना ही नहीं है, बल्कि अच्छे काम के अवसर उपलब्ध कराना भी है, जो बदले में महिलाओं के सामाजिक-आर्थिक सशक्तीकरण की बुनियाद बनेगा। श्रमबल भागीदारी दर से परे, नीति-निर्माताओं को इस बारे में अधिक चिंतित होना चाहिए कि महिलाएं बेहतर नौकरियों तक पहुंचने या व्यवसाय शुरू करने में कैसे सक्षम बनकर श्रम बाजार में अवसरों का लाभ उठा सकेंगी।