वैश्विक स्तर पर विद्वत-वर्ग, जिसमें वैज्ञानिक भी प्रमुखता से शामिल हैं, अनेक वर्ष पहले से नीति-निर्धारकों के समक्ष यह स्पष्ट करता रहा है कि सभी परिवर्तन मनुष्य जाति के लिए सकारात्मक नहीं होते। यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह किसी भी नए आविष्कार, खोज या उसके परिणामस्वरूप विकसित किए गए संयंत्र निर्मित करने और उनको उपयोग में लाने से पहले यह विश्लेषण अवश्य करे कि दुरुपयोग की संभावनाएं कितनी हैं, और उनको कैसे संभाला जा सकेगा। सर्व-परिचित उदाहरण हैं- प्लास्टिक और रासायनिक उर्वरक, जो प्रारंभ में वरदान माने गए, लेकिन बाद में विकट समस्याओं में बदल गए।
ऐसा कौन देश या व्यक्ति होगा जो जलवायु परिवर्तन और उससे जुड़े संकटों के प्रभाव से अलग रह सकता है? हर स्तर पर इन समस्याओं के समाधान ढूंढ़ने के प्रयास प्रारंभ हो चुके हैं जो समस्याओं की बढ़त के बरक्स अभी तक तो अधिक उत्साह उत्पन्न नहीं कर सके हैं। ऐसा दूसरे विश्वयुद्ध के पश्चात लगातार हो रहा है। हिरोशिमा-नागासाकी के बाद जब परमाणु हथियारों की दौड़ प्रारंभ ही हुई थी, वैज्ञानिकों ने भविष्य की आशंकाओं का अनुमान लगा लिया था।
राबर्ट ओपेनहाइमर ने 1945 में ही गीता का संदर्भ देकर कह दिया था कि मैं ही मृत्यु हूं, मैं लोकों का संहारकर्ता हूं! आइंसटीन के बाद जिस प्रखरतम मस्तिष्क को विश्व ने पहचाना है उसके धनी स्टीफन हाकिंग ने अपने एक लेख में सामान्य शब्दों में लिखा था : पृथ्वी इतने क्षेत्रों से खतरे में है कि मेरा सकारात्मक बने रहना संभव नहीं है।
हाकिंग ने सबसे प्रमुख खतरे के रूप में जिस समस्या का जिक्र किया वह है तो सर्व-विदित, लेकिन उसकी ओर ध्यान विरले लोगों का ही जाता है- यह पृथ्वी हमारे लिए अब बहुत छोटी हो गई है! हमारे भौतिक संसाधन तेजी से खर्च हो रहे हैं। प्राकृतिक संसाधनों का मनमाना दोहन हम लगातार करते जा रहे हैं। बढ़ते तापक्रम, पिघलते हिमनद, जंगलों का विध्वंस, बढ़ती जनसंख्या, बीमारियां, युद्ध, भुखमरी, पेड़-पौधों और पशु पक्षियों की प्रजातियों का विलुप्तिकरण आदि।
एक ओर वैज्ञानिक समस्याओं का समाधान निकालने में लगे हैं- ऊर्जा के वैकल्पिक स्रोत ढूंढ़ कर उनके उपयोग पर शोध कर रहे हैं- एथानाल, इलेट्रिक गाड़ियां आदि। दूसरी ओर, राजनेता केवल अपने वोट का ही ध्यान रख रहा है। कुछ अपवादों को छोड़कर जनतंत्र केवल वोटतंत्र बनकर रह जाता है और राजनीति तथा राष्ट्रनीति के अंतर को स्पष्ट करता है।
अनेक अवसरों पर अनेक सकारात्मक परिवर्तन अप्रत्यक्ष रूप से कुछ ऐसी समस्याओं से जकड़ जाते हैं जिन पर राजनेता चर्चा करना पसंद नहीं करते हैं। इसका उदाहरण स्वतंत्र भारत में शिक्षा और साक्षरता और उससे जुड़े शैक्षिक परिवर्तनों पर निगाह डाल कर समझ जा सकता है। स्वतंत्रता के समय भारत की साक्षरता दर 18 फीसद थी जो आज 80 फीसद के आस-पास आंकी जा रही है। इसी बीच भारत की जनसंख्या तेजी से बढ़ी।
आशा की किरण ढूंढ़ना मनुष्य की प्रवृति में सम्मिलित है। वह अपने द्वारा सृजित हर समस्या का समाधान ढूंढ़ लेता है। इस समय पर भी पृथ्वी तथा मनुष्य को बचाने के लिए स्थाई समाधान ढूंढ़े जा सकते हैं। त्वरित- समाधान की रणनीति तो स्थानीयता पर भी निर्भर करेगी, लेकिन दीर्घकालीन उपाय आवश्यक होंगे। भारत की जो गहरी समझ महात्मा गांधी ने विकसित की थी, वह अद्भुत थी। समाधान उसी में ढूंढ़े जा सकते हैं। स्वंतत्रता के बाद सत्ता जिन हाथों में आई उनमें से लगभग सभी गांधी जी के साथ कार्य कर चुके थे।
यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि गांधीजी को भुलाने की प्रक्रिया आजादी के प्रारंभिक वर्षों में ही प्रारंभ हो चुकी थी। पिछले पांच दशकों में चयनित प्रतिनिधियों ने – अपवाद छोड़कर- जनता से दूरी बनाने में कोई हिचक नहीं दिखाई है। गांधी ने तो एक अमर वाक्य हम सभी को दिया था : प्रकृति के पास हर व्यक्ति की आवश्यकता पूर्ति के लिए समुचित संसाधन उपलब्ध हैं लेकिन किसी एक के भी लालच की पूर्ति के लिए नाकाफी हैं।
गांधी ने सदा भारत के भविष्य पर चिंतन-मनन किया, साथ ही साथ वैश्विक स्तर पर मानवता के हित में भी सोचा। 1932 में कार्ल वासबर्न ने अपनी पुस्तक ‘रिमेकर्स आफ मैनकाइंड’ में लिखा है कि एक बार गांधी जी से यह पूछा गया कि स्वतंत्र भारत में सबसे बड़ी समस्या क्या होगी? उनका उत्तर अप्रत्याशित था। उत्तर था : चरित्र निर्माण।
वे ऐसे व्यक्तियों को तैयार करना चाहते थे जो साहस, शक्ति, नैतिकता को अंतर्निहित कर सकें और दूसरे की सेवा में अपने को पूरी तरह समर्पित करने की क्षमता से परिपूर्ण हों। स्वतंत्र भारत ने इस सूत्र वाक्य को भुला दिया। अब तो प्रांतों में ऐसी सरकारें आ गई हैं, जिन्होंने सरकारी दफ्तरों से गांधी का चित्र तक हटा दिया है। उनके लिए गांधी का महत्त्व ही क्या है!
गांधी जी की हत्या के अगले दिन ब्रिटेन के प्रसिद्ध अखबार लंदन टाइम्स ने एक संपादकीय लिखा था, जिसमें कहा गया था कि केवल भारत और हिंदू धर्म ही ऐसे देश और पंथ हैं जिसमें महात्मा गांधी जैसा कोई व्यक्ति जन्म ले सकता है। यह भारत की संस्कृति, सभ्यता और विविधता की स्वीकार्यता के महत्त्व को दर्शाता है।
डा राधाकृष्णन ने गांधी स्मृति ग्रंथ- जिसका उन्होंने संपादन किया था -की प्रस्तावना में लिखा कि यह सत्य है कि हम गांधी में वे सभी विशेषताएं और गुण देखते हैं जो भारत की संस्कृति के सर्वोत्तम पक्ष हैं, लेकिन यह भी सत्य है कि गांधी विश्व के महानतम व्यक्तियों में शामिल हैं। गांधी जी के व्यक्तित्व के संबंध में प्रसिद्ध वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन का यह कथन इतिहास बार-बार दोहराता रहेगा कि आने वाली पीढ़ियां यह विश्वास नहीं कर पाएगी कि हाड़-मांस के किसी ऐसे व्यक्ति ने भी इस पृथ्वी पर जन्म लिया था।
जिस देश के पास विविधता की स्वीकार्यता का हजारों साल का इतिहास रहा है, उसे सामाजिक समरसता का उदाहरण विश्व के समक्ष रखने के कर्तव्य का निर्वाह करना ही चाहिए। हमें अपना घर व्यवस्थित करने के लिए तैयार रहना चाहिए और अपनी वैश्विक जिम्मेदारी निभाने के लिए भी तैयार होना चाहिए।