केसी त्यागी/ बिशन नेहवाल
गन्ने का पेराई सत्र शुरू होने में एक हफ्ते से भी कम का समय रहने के बावजूद सरकार ने इस वर्ष के लिए गन्ने के मूल्य में अभी तक किसी भी तरह की बढ़ोतरी की घोषणा नहीं की है। पेराई सत्र के कम से कम एक महीना देरी से चलने के कारण निजी कोल्हुओं की मनमानी से परेशान किसानों और किसान संगठनों में कुलबुलाहट होने लगी है। किसानों को उम्मीद है कि आगामी वर्ष लोकसभा चुनाव का होने के चलते सरकार गन्ने के दाम में जरूर बढ़ोतरी करेगी।
गन्ना उत्पादन के मामले में उत्तर प्रदेश, देश के अन्य सभी राज्यों में अव्वल है। यहां देश में कुल उत्पादित गन्ने के 44.50 फीसद का उत्पादन होता है। उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और कर्नाटक मिल कर देश के कुल उत्पादन का 80 फीसद गन्ना पैदा करते हैं। उत्तर प्रदेश के पचास लाख से ज्यादा किसानों के जीवन में गन्ने के माध्यम से मिठास आती है।
इसके पश्चिमी भू-भाग में गन्ना मिलों द्वारा डेढ़-दो सालों के विलंब से भुगतान करने के बावजूद गन्ने को मुख्य नगदी फसल के रूप में माना जाता है। इसके साथ ही अब एथेनाल उत्पादन में भी प्रदेश अन्य प्रदेशों से आगे निकल चुका है। प्रदेश की चीनी मिलों में एथेनाल का उत्पादन आठ गुना तक बढ़ गया है। वर्तमान में प्रदेश में दो अरब लीटर एथेनाल का उत्पादन किया जा रहा है।
उत्तर प्रदेश में गन्ने के रकबे में भी बढ़ोतरी हुई है। पिछले एक वर्ष में गन्ने के क्षेत्रफल में 92,052 हजार हेक्टेयर की वृद्धि हुई है। इसके साथ ही गन्ना की खेती का रकबा अब 28.53 लाख हेक्टेयर हो गया है। उत्तर प्रदेश में औसत गन्ना उत्पादकता वर्ष 2016-17 में 72.38 टन प्रति हेक्टेयर थी। वर्ष 2020-21 में यह बढ़ कर 82.31 टन प्रति हेक्टेयर हो गई। इससे लगभग 9.93 टन प्रति हेक्टेयर अतिरिक्त गन्ने का उत्पादन हुआ है। पेराई सत्र 2022-23 में प्रदेश की चीनी मिलों ने 1878.19 लाख कुंतल गन्ने की पेराई कर लगभग 103 लाख टन चीनी का उत्पादन किया।
प्रदेश में गन्ने का उत्पादन बढ़ रहा है, तो साथ में खेती की लागत में भी बेतहाशा बढ़ोतरी हो रही है, लेकिन फसल के दाम उस अनुपात में नहीं बढ़े। 2020 में नीति आयोग द्वारा प्रोफेसर रमेश चंद्र की अध्यक्षता में गठित कार्यबल ने बढ़ते एफआरपी के कारण किसानों का गन्ने की फसल के प्रति झुकाव और गन्ने के बढ़ते उत्पादन का मुख्य कारण माना था, और अपनी सिफारिश में किसानों को कम गन्ना बोने की सिफारिश की थी।
हालांकि समिति ने रंगराजन समिति की सिफारिश पर आधारित राजस्व साझा फार्मूला (आरएसएफ) लागू करने का भी सुझाव दिया था। रंगराजन फार्मूले के अनुसार गन्ने का मूल्य चीनी उत्पादन से प्राप्त राजस्व का 70 से 75 फीसद (जिसमें 5 फीसद अतिरिक्त गन्ने से प्राप्त होने वाले अन्य उत्पादों) से जुड़ा होना चाहिए। जबकि आरएसएफ से निर्धारित मूल्य हमेशा उचित और लाभकारी मूल्य यानी एफआरपी से ज्यादा होगा।
अगर यह मूल्य एफआरपी से कम हो जाता है तो इसकी भरपाई गन्ना विकास कोष, शुगर डेवलपमेंट फंड (एसडीएफ) से की जाएगी। सरकार द्वारा गठित इस समिति द्वारा मिल मालिकों के हित में दिए गए सुझाव तो मान लिए गए, पर किसान हित में दिए गए सुझाव आज भी लागू होने का इंतजार कर रहे हैं।
देश में करीब अस्सी फीसद सीमांत किसान (तीन एकड़ से कम) हैं, जो खेती की लगातार बढ़ती कीमतों के कारण गरीबी और कर्ज में डूबते जा रहे हैं। अगर कृषि और दूसरे क्षेत्रों के आंकड़ों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि किसान ने खेती से जितना कुछ कमाया है, उससे ज्यादा वह डीजल-पेट्रोल, खाद, उर्वरक, घर का खर्च और बच्चों की पढ़ाई से लेकर दवा में खर्च कर रहा है।
खुद सरकारी संस्थान शाहजहांपुर गन्ना संस्थान ने एक कुंतल गन्ने की खेती में 304 रुपए का खर्च बताया है। अगर सरकार के एफआरपी के उत्पादन लागत से 105 फीसद से अधिक होने के दावे पर यकीन करें तो गन्ने की वाजिब कीमत 600 से 650 रुपए प्रति कुंतल होनी चाहिए। जबकि गन्ने पर पांच साल में सिर्फ पच्चीस रुपए प्रति कुंतल बढ़े हैं। इस दौरान चीनी के दाम भी बढ़े हैं। साथ में एथेनाल से चीनी मिल मालिकों के मुनाफे में बढ़ोतरी हो रही है। दूसरी तरफ किसान गन्ने की लगातार बढ़ती उत्पादन लागत से कर्ज के नीचे दबता जा रहा है।
गन्ना किसानों की दूसरी बड़ी समस्या चीनी मिलों से भुगतान मिलने में देरी है। इससे किसानों को आर्थिक परेशानी का सामना करना पड़ता है। सरकार द्वारा सत्र 2022-2023 के जारी आंकड़ों के हिसाब से भी गन्ना किसानों के कुल बकाया 9,499 करोड़ रुपए में से उत्तर प्रदेश में मिल मालिकों को 6,315 करोड़ रुपए का भुगतान करना है, जबकि गुजरात में 1,651 करोड़ रुपए और महाराष्ट्र में 631 करोड़ रुपए। उत्तर प्रदेश गन्ना विकास विभाग के ताजा आंकड़ों के मुताबिक चालू पेराई सत्र के लिए 3 जुलाई तक चीनी मिलों ने 31,822.38 करोड़ रुपए का भुगतान किया है। जबकि चीनी मिलों द्वारा पूरे सीजन में पेराई किए गए गन्ने का कुल भुगतान करीब 38,052 करोड़ रुपए है।
वैसे तो ‘शुगर केन कंट्रोल आर्डर 1996’, जिसे भार्गव फार्मूला कहा जाता है, के अनुसार किसानों द्वारा चीनी मिलों को गन्ना आपूर्ति करने के चौदह दिन बाद भुगतान हो जाना चाहिए। उसके बाद यह बकाया भुगतान की श्रेणी में आ जाता है और उस स्थिति में मिल द्वारा पंद्रह फीसद वार्षिक ब्याज समेत भुगतान देना होता है। राज्य में सभी चीनी मिलें मई में पेराई बंद कर देती हैं, जाहिर है अक्तूबर से मई तक गन्ना डालने का जो भुगतान नहीं हुआ है वह बकाया की श्रेणी में ही आता है और नियमानुसार इस पर ब्याज भी बनता है। मगर अभी तक चीनी मिलें बकाए पर ब्याज नहीं दे रही हैं और यह मामला लंबे समय से न्यायालय में है।
इस बात में कोई संदेह नहीं और चीनी मिलें भी स्वीकार करती हैं कि जबसे एथेनाल के उत्पादन पर ध्यान केंद्रित किया गया है, तब से चीनी मिलों की आर्थिक स्थिति में सुधार हुआ है। मगर चीनी मिलें इसमें भी खेल कर रही हैं। वे एथेनाल का उत्पादन तो गन्ने से कर रही हैं, लेकिन एथेनाल संयंत्र को चीनी मिल से इतर एक अलग इकाई के रूप में संचालित कर रही हैं। मतलब कि इनका चीनी मिलों से कोई लेना-देना नहीं है।
जब बात किसान के भुगतान की आती है तो चीनी मिलों को घाटे में दिखाने लगते है, पर लाभ की इकाई एथेनाल संयंत्र का कोई जिक्र नहीं करते। खुद तो तेल कंपनियों से एथेनाल का भुगतान पंद्रह दिन में उठा लेते हैं, पर जब बात किसान को उसका वाजिब दाम देने की आती है, तो उसे वर्षों तक लटका कर रखते हैं।
सरकार को चाहिए कि वह चीनी मिलों के इस अनुचित वित्तीय प्रबंधन पर अंकुश लगाए और किसानों को तय समय में उचित मूल्य दिलाने की व्यवस्था करे। आज गन्ना किसानों के सामने आने वाली चुनौतियों से निपटने के लिए एक व्यापक रणनीति की आवश्यकता है। इसमें देरी के लिए सख्त प्रवर्तन और दंड के माध्यम से चीनी मिलों द्वारा समय पर बकाया भुगतान सुनिश्चित करना, लागत के साक्षेप गन्ने के लिए उचित मूल्य स्थापित करना शामिल होना चाहिए।