ज्योति सिडाना
मनुष्य को जीने के लिए रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरत होती है, जिसमें से पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण आवश्यकता रोटी, यानी भोजन है। स्वस्थ और खुशहाल जीवन के लिए पौष्टिक भोजन की आवश्यकता होती है। सब जानते हैं कि किसी भी राज्य का दायित्व अपने नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को पूरा करना और आवश्यक संसाधन उपलब्ध करवाना होता है, ताकि वे एक सभ्य जीवन जी सकें।
कृषि उत्पादन के क्षेत्र में भारत आत्मनिर्भर माना जाता है, यहां प्रति व्यक्ति आय में वृद्धि होने के बावजूद लाखों बच्चे और महिलाएं भूख से पीड़ित और असमय काल का ग्रास बनने को बाध्य हैं। हाल ही में जारी वैश्विक भूख सूचकांक-2023 की रिपोर्ट में 125 देशों की सूची में भारत एक सौ ग्यारहवें स्थान पर आया है। रिपोर्ट के अनुसार यह पिछले साल की तुलना में चार स्थान नीचे गिरा है, जबकि भारत के पड़ोसी देश पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल और श्रीलंका की स्थिति भारत से कहीं बेहतर है।
यह बात और है कि पहले के वर्षों की तरह इस बार भी भूख सूचकांक रिपोर्ट को केंद्र सरकार ने स्वीकार नहीं किया। उसका तर्क है कि जिन चार मापदंडों, जैसे कुपोषण, बाल मृत्यु दर, बाल कुपोषण, ‘चाइल्ड वेस्टिंग’ यानी बच्चे का अपनी उम्र के हिसाब से बहुत दुबला या कमजोर होना, पर भुखमरी का आकलन किया जाता है, वह दोषपूर्ण है।
पांच साल से कम उम्र के ऐसे बच्चे, जिनका वजन उनके कद के हिसाब से कम होता है, यह दर्शाता है कि उन बच्चों को पर्याप्त पोषण नहीं मिला, इस वजह से वे कमजोर हो गए। ‘चाइल्ड स्टंटिंग’ यानी ऐसे बच्चे, जिनका कद उनकी उम्र के लिहाज से कम हो। जिन बच्चों में लंबे समय तक पोषण की कमी होती है, उनमें ‘स्टंटिंग’ की समस्या देखी जाती है।
वैश्विक भूख सूचकांक से ज्ञात होता है कि किसी देश में भुखमरी और कुपोषण की स्थिति क्या है। पिछले वर्ष यानी 2022 में 121 देशों की श्रेणी में भारत 107वें स्थान पर था, 2021 में 101वें और 2020 में 94वें स्थान पर था। इस रिपोर्ट के अनुसार भारत में भूख का स्तर 28.7 अंक है, जो गंभीर स्थिति को व्यक्त करता है। ‘चाइल्ड वेस्टिंग’ की दर 18.7 फीसद है, जो अतिकुपोषण की संकेतक है।
सरकार का कहना है कि चार में से तीन संकेतक बच्चों के स्वास्थ्य से जुड़े हैं, जो पूरी आबादी का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकते। चौथा संकेतक समग्र आबादी में कुल कुपोषितों का अनुपात ज्ञात करना है, जिसे मात्र तीन हजार नमूनों के मत सर्वेक्षण से एकत्र किया गया है, इसलिए सरकार इन आंकड़ों को सही नहीं मान रही। रिपोर्ट में बताया गया है कि भारत में अल्पपोषण की दर 16.6 फीसद और पांच साल से कम उम्र के बच्चों की मृत्यु दर 3.1 फीसद है और 15 से 24 वर्ष की आयु की महिलाओं में रक्त की कमी 58.1 फीसद है। अगर इन आंकड़ों को स्वीकार किया जाए, तो भारत की स्थिति वास्तव में बहुत दयनीय है।
दूसरी तरफ एक अन्य रिपोर्ट वैश्विक बहुस्तरीय गरीबी सूचकांक में संयुक्त राष्ट्र ने खुलासा किया है कि भारत में 2005-06 से 2019-21 के बीच में 41.5 करोड़ लोग गरीबी से बाहर आए हैं। रिपोर्ट बताती है कि भारत में 2005-06 में लगभग 6.45 करोड़ लोग गरीबी में जीवन गुजार रहे थे, 2015-16 में यह संख्या घटकर लगभग 3.70 करोड़ और 2019-21 में 2.30 करोड़ रह गई। इन आंकड़ों से स्पष्ट होता है कि गरीबी के स्तर में पर्याप्त कमी आई है।
रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि भारत के सबसे गरीब राज्यों, जिनमें अधिकतर बच्चे और पिछड़ी जातियों के लोग शामिल हैं, में पर्याप्त सुधार हुआ है। इन दोनों रिपोर्ट का विश्लेषण करने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि इनमें परस्पर विरोधाभासी हैं। सवाल है कि अगर गरीबी के स्तर में सुधार हुआ है, तो भुखमरी में भारत का स्थान इतना नीचे क्यों है? गरीबी कम हुई है तो भुखमरी भी कम होनी चाहिए थी, लेकिन दोनों रिपोर्ट परस्पर विरोधी आंकड़े प्रस्तुत करती हैं।
भारत में लगभग 65 फीसद आबादी ग्रामीण है और 54.6 फीसद कार्यबल कृषि संबंधी गतिविधियों में संलग्न है। यानी भारत में गरीबी और भुखमरी काफी हद तक कृषि पर निर्भर है। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि आज भी भारतीय कृषि कम भू-स्वामित्व, मानसून पर निर्भरता, सिंचाई की परंपरागत तकनीक, वित्तीय सहायता की कमी और सरकारी पहल में सुस्ती जैसी गंभीर चुनौतियों का सामना करने को मजबूर है।
इसके अलावा भारत में भूख की समस्या के लिए निर्धनता, बेरोजगारी, अशिक्षा, सामाजिक और लैंगिक असमानताएं, स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में जागरूकता की कमी भी जिम्मेदार हैं। निर्धनता और बेरोजगारी के कारण जनसंख्या का एक बड़ा भाग स्वास्थ्य देखभाल, शिक्षा, स्वच्छता आदि पक्षों को गैर-आवश्यक मानकर उपेक्षित कर देता है। इसके साथ ही रोजगार की तलाश में एक स्थान से दूसरे स्थान पर भटकने वाले अस्थायी मजदूर ऐसे वातावरण में रहने को बाध्य होते हैं, जो स्वास्थ्य और स्वच्छता की दृष्टि से उनके जीवन पर नकारात्मक प्रभाव डालते हैं।
प्रमुख समस्या खाद्य उत्पादन की कमी नहीं, बल्कि अनुचित या असमान वितरण प्रणाली की है, जिसके कारण प्रत्येक व्यक्ति को उसकी आवश्यकता के अनुसार पर्याप्त भोजन नहीं मिल पा रहा। एक अनुमान के अनुसार भारत का लगभग 40 फीसद भोजन बर्बाद हो जाता है, 30 फीसद सब्जियां और फल भंडारण के अभाव में बर्बाद हो जाते और सैकड़ों टन खाद्यान्न असुरक्षित गोदामों में सड़ जाता है।
सतत विकास लक्ष्यों में से एक लक्ष्य वर्ष 2030 तक वैश्विक भूख को समाप्त करना भी है। पर इस रिपोर्ट को देखने के बाद क्या ऐसा लगता है कि 2030 तक इस लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है।एक विरोधाभास यह भी है कि एक तरफ भोजन की कमी के कारण लोग मरने को मजबूर हैं, उन्हें अधिकांश समय एक बार का भोजन भी नसीब नहीं होता, तो दूसरी तरफ दिखावे की संस्कृति के कारण सैंकड़ों टन भोजन शाही तरीके से आयोजित आधुनिक विवाह समारोहों में जूठन के रूप में फेंक कर बर्बाद कर दिया जाता है। इस समस्या से निजात पाने के लिए सभी के लिए न्यूनतम वेतन/ मजदूरी निर्देशित रोजगार और सार्वभौमिक मूल वेतन एक पहल हो सकती है।
महात्मा गांधी ने कहा था कि मैं तुम्हें एक जंतर देता हूं, जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहं तुम पर हावी होने लगे, तो इसे आजमाना। जो सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो उसकी शक्ल याद करो और अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज मिल सकेगा, जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है? तब तुम देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहं समाप्त हो रहा है। जाति और धर्म के नाम पर आरक्षण देने के स्थान पर गरीबी और भुखमरी को क्या आरक्षण का आधार नहीं बनाया जा सकता।
इसलिए निर्धनता को असमानता की संरचना के साथ देखे जाने की जरूरत है। जैसे-जैसे निर्धनता का विस्तार होता है, स्तरीकरण और अधिक जटिल होता चला जाता है, जिससे आधारभूत परिवर्तन की प्रक्रिया में बाधाएं उत्पन्न होती हैं। देश का डिजिटल होना जितना आवश्यक है, उससे कहीं ज्यादा आवश्यक है प्रत्येक नागरिक को बिना किसी भेदभाव के भोजन प्राप्त करने का अधिकार मिलना।