मुनीष भाटिया
लापरवाही आमतौर से उस तरह की असावधानी को कहते हैं जो सामान्य व्यवहार में विफलता के फलस्वरूप उत्पन्न होती है। कोई काम अगर कोई व्यक्ति अपने सामान्य विवेक के अनुसार ध्यान रखते हुए संपन्न करता है तो परिणाम घातक नहीं होते हैं। इंसानी सामान्य व्यवहार में इस तरह की चूक और कर्त्तव्य निर्वाह में विफलता की प्रवृत्ति आज समाज में बढ़ रही है।
लोगों के बर्ताव में लापरवाही से कई बार खुद संबंधित लोगों को भी शर्मिंदा होना पड़ जाता है। इसका नतीजा यह हो रहा है कि कहीं यातायात दुर्घटनाएं तो कहीं बाढ़ जैसे मामले में उत्तरोत्तर बढ़ोतरी हो रही है। लेकिन यह मानवीय लापरवाही ही है कि भयंकर जानमाल के नुकसान के बावजूद और इनकी पुनरावृत्ति होने पर भी कोई सबक आम लोग लेना जरूरी नहीं समझते।
समाज की प्रत्येक इकाई में जरा-सी लापरवाही इंसान की जान को जोखिम में डाल रही है। समाज में इस तरह का कोई क्षेत्र नहीं, जहां लापरवाही की वजह से इंसानियत और पर्यावरण को हानि नहीं पहुंचा हो। परिवार में अपने कर्तव्य का निर्वाह करने में जरा-सी चूक ऐसी परिस्थिति पैदा कर देती है कि तमाम सामाजिक सरोकार को भी आघात लगना आरंभ हो जाता है। रेल और सड़क दुर्घटनाओं में लोगों के जान गंवाने पर की गई जांच के परिणाम में कथित रूप से मानवीय लापरवाही को ही जिम्मेदार बताया जाता रहा है। अगर कर्तव्य वहन में पूर्ण सचेत होकर लापरवाही न हो तो भयानक दुर्घटनाएं बार-बार न हों।
कुछ समय पहले मेरठ-दिल्ली राष्ट्रीय मार्ग पर निषेध के बावजूद गलत मार्ग पर बस चलाने की घटना सामने आई थी। उसमें गलत दिशा से स्कूल बस के सड़क पर उतरने से सही दिशा से आ रही कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई। इसे मानवीय लापरवाही के साथ साथ भयंकर भूल कहा जा सकता है। जब किसी राष्ट्रीय मार्ग पर चलने के नियम निर्धारित हैं।
तब फिर भी वाहन चालकों का उल्टी दिशा में वाहन चलाने की लापरवाही करना आज जैसे भारतीय जनमानस की आदत में शुमार हो चला है। यह नहीं है कि इस तरह की घटना पहली बार हुई हो। मानवीय लापरवाही की इस तरह की घटनाएं अक्सर खबरों की सुर्खियां बनती रहती हैं। खासतौर पर तब जब उसके नतीजे में जानमाल की हानि होती है।
इसी तरह की तस्वीरें तब देखने को मिली थी, जब बाढ़ग्रस्त क्षेत्र में यात्रियों से खचाखच भरी बस को गहरे पानी से निकालने के दृश्य ने रोंगटे खड़े कर दिए। वह मानवीय लापरवाही का ज्वलंत उदाहरण था। तात्कालिक लाभ या फिर कर्तव्य के प्रति विमुख हो जाना ही असली समस्या हो चुकी है, जो मानवतावाद की शत्रु है।
आज हर शख्स जल्दी में है, किसी को न तो अपनी जान की परवाह है और न ही दूसरे की चिंता। जल्दी और संक्षिप्त रास्ते के चक्कर में सब नियम-कानून ताक पर रखे, बस भागे जा रहे हैं। तात्कालिक लाभ और मानवीय लापरवाही की वजह से समाज के प्रति इंसान के सरोकार की नैया डूब रही है।
बरसात में दरकते पहाड़ों के बीच प्राकृतिक आपदा के लिए भी लापरवाही ही जिम्मेदार है कि नदियों-नालों का रास्ता रोक कर अवैध निर्माण किए जा रहे हैं और लोग प्रकृति के अत्यधिक दोहन पर आंख मूंदे हुए हैं। अवैध निर्माण और नदी के मुहाने पर गृह निर्माण करने के मामले में जहां उसके निर्माण की मंजूरी देने के लिए सरकार जिम्मेदार है, उतने ही जिम्मेदार वे लोग भी हैं, जिन्होंने प्रकृति से खिलवाड़ करने में किसी बात की परवाह नहीं की।
पर्यटन के नाम पर आज पहाड़ी राज्यों का जिस कदर शोषण किया जा रहा है और नदी-नालों और झरनों को अवरुद्ध किया जा रहा है, वह भी पर्यावरण के लिहाज से चिंता का विषय बना हुआ है। मनुष्यों के पर्यावरण के प्रति लापरवाह होने का ही परिणाम है कि निषेध के बावजूद पहाड़ी पर्यटन स्थल प्लास्टिक के कचरे से अटे पड़े दिखते हैं। फिर चाहे पानी की बोतल हो या फिर चिप्स आदि के पैकेट, हमारा लापरवाह रवैया पर्यावरण असंतुलन का कारण बन रहा है।
हालत यह है कि वर्तमान युग में सोशल मीडिया के बढ़ते प्रचार-प्रसार के कारण लोग सेल्फी लेने के चक्कर में भी लापरवाही की इंतहा दिखती है। खतरनाक झरनों में उतरना या फिर ऊंची अट्टालिकाओं में मात्र एक सेल्फी के चक्कर में जान जोखिम में डाल देते हैं। जरा-सी लापरवाही ऐसे लोगों के परिवार के लिए कितनी घातक सिद्ध हो सकती है, इस बात से वे वाकिफ तो होते हैं, फिर भी उनकी लापरवाही बदस्तूर चलती रहती है।
इस तरह देखा जाए तो अपने कर्तव्य के प्रति कदाचार करने की प्रवृत्ति पर रोक लगाना आज वक्त की जरूरत बन गया है। अगर हम परिवार समाज और प्रकृति के प्रति अपने कर्त्तव्य का निर्वहन सचेत होकर करने लग जाएं तो कुछ सीमा तक जानमाल को बचाया जा सकता है। हमारी जरा-सी लापरवाही न तो मानव जाति के लिए उचित है और न ही प्रकृति के नियमों के अनुरूप है।