विनोद के शाह
सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी के आधार पर भारत विश्व की पांचवी अर्थव्यवस्था बन चुका है। इसे सरकार और अर्थशास्त्री बढ़ते भारत की तस्वीर के रूप में पेश करते हैं। मगर इस उपलब्धि में भारत के उस उपभोक्ता मूल्य सूचकांक को नजरअंदाज कर दिया जाता है, जिसका संबंध महंगाई से होकर देश की जनता की जेब पर पड़ता है। महंगाई दर में देश तुर्किए और ब्राजील के बाद विश्व में तीसरे स्थान पर खड़ा है।
महंगाई नियंत्रण के लिए जिस देश में उत्पाद और सेवा कर का निर्धारण उपभोक्ता हितों को ध्यान में रखकर होना था, वहां व्यापार नीतियां उत्पादक को मनचाही कीमतें निर्धारित करने का अधिकार देती हैं। जिस देश में उपभोक्ता को राजा कहा जाता है, वहां उसे मूल्य चुनने की आजादी देने के बजाय मुनाफाखोरी की गुलामी में जकड़ लिया गया है। महंगाई नियंत्रण के लिए सरकार गेहूं, चीनी, चावल, प्याज, दलहन के निर्यात को प्रतिबंधित करने के साथ व्यापारियों के लिए भंडारण क्षमता निर्धारित कर देती है। अमूनन महंगाई बढ़ने पर देश की सरकारें यही एकमात्र उपाय अपनाती आ रही हैं।
बढ़ती महंगाई पर त्वरित रोक के लिए खाद्य सामाग्री पर नियंत्रण प्रभावी उपाय हो सकता है, पर यह आम जनता को स्थायी राहत देने का उपाय नहीं है। खाद्य सामग्री में मूल्य वृद्धि के साथ भारतीय बाजार में दैनिक उपयोग की प्रत्येक वस्तु में मूल्य वृद्धि कर दी जाती है, भले उसका संबंध खाद्यान्न जैसे विषयों से न हो। उपभोक्ता कानून के मुताबिक हर डिब्बाबंद वस्तु पर अधिकतम विक्रय मूल्य अंकित किया जाना आवश्यक है।
मगर सरकार की तरफ से अधिकतम विक्रय मूल्य तय करने का कोई पैमाना निर्धारित नहीं किया गया है। आवश्यक वस्तु अधिनियम 1955 के अंतर्गत न आने वाली सभी वस्तुओं के मूल्य निर्धारण का अधिकार निर्माता को ही है। कानून उत्पादक को यह अधिकार देता है कि वह विक्रय मूल्य का निर्धारण कर उसका अंकन डिब्बाबंद सामग्री पर करे। उत्पादक कंपनियां बाजार की मांग और उसकी उपलब्धता के साथ पैकिंग सामग्री और विज्ञापन के आकर्षण के आधार पर अधिकतम विक्रय मूल्य अंकित कर लेती हैं, जिसमें वितरक और खुदरा व्यापारी को भी अधिकतम मुनाफा देना शामिल किया जाता है।
कुछ निर्माता उत्पादक मूल्य का दो से तीन गुना अधिक मूल्य अंकित करते हैं, जिसमें खुदरा व्यापारी को अपनी विक्रय नीति के अनुसार मुनाफा कम या ज्यादा रखने का मौका मिलता है। आनलाइन दवा विक्रेता कंपनियां भी अंकित मूल्य से चालीस-पचास फीसद तक मूल्य छूट का विज्ञापन करती हैं, जबकि वही दवा स्थानीय व्यापारी या तो अंकित अधिकतम मूल्य पर बेचता या अपनी विक्रय नीति के अनुसार छूट देता है।
इसका अर्थ यह कि विक्रय मूल्य अंकन के लिए सरकार की तरफ से कोई उचित गणना का निर्धारण न होने से दवाओं पर अधिक मूल्य का अंकन हो जाता है। आम आदमी को राहत देने के लिए नियमित शोध के बगैर तैयार होने वाली जेनरिक दवाओं पर उनके लागत मूल्य से दो से तीन गुना अधिक विक्रय मूल्य का अंकन होता है। यह खुदरा दुकानदार पर निर्भर होता है कि वह ग्राहक को कितनी छूट प्रदान करे। यही वजह है कि विभिन्न शहरों और दुकानों में जेनरिक दवाओं के विक्रय मूल्य में बड़ा अंतर दिखाई देता है।
आवश्यक दवाओं की राष्ट्रीय सूची (एनएलईएम) में सीमित दवाएं शामिल हैं, जिनका मूल्य निर्धारण सरकार द्वारा होता है। शेष दवा उत्पाद पर अधिकतम मूल्य अंकन कंपनी और उसकी संपूर्ण वितरण श्रृंखला के अधिकतम मुनाफे के लिए ही होता है। उपभोक्ताओं की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद कार्डिएक स्टैंड सहित बीस उपकरणों को दवा एवं प्रसाधन कानून के अंतर्गत मूल्य नियंत्रण हेतु अधिसूचित अवश्य किया गया है, लेकिन सेवा देते वक्त अधिकांश चिकित्सक इन भारतीय उपकरणों को गुणवत्ताहीन बताकर मरीज के परिजनों को महंगे विदेशी उपकरण ही खरीदने को मजबूर करते हैं।
उपभोक्ता कानून उपभोक्ता को मोल-भाव करने का अधिकार देने के साथ यह भी कहता है कि अंकित अधिकतम विक्रय मूल्य किसी भी वस्तु का एकमात्र मूल्य नहीं हो सकता है। मगर जहां ग्राहक को वास्तविक मूल्य ही मालूम नहीं है, वहां मोल-भाव उसे ठगी का शिकार बनाता है। देश का ग्राहक लागत मूल्य की अपेक्षा बहुत महंगे दाम अदा कर रहा है। यह देश में महंगाई वृद्धि का एक बड़ा कारक है। उत्पादन और अधिकतम खुदरा मूल्य का मुद्रण अधिनियम 2006 उत्पादन लागत की कोई व्याख्या नहीं करता है। यह सिर्फ अंकित मूल्य से अधिक कीमत पर बिक्री की अनुमति नहीं देता है।
देश में ग्राहक की मनोवैज्ञानिक स्थिति जांचने के बाद भी मूल्यों के निर्धारण की नीति उपयोग में लाई जाती है। मौसम देखकर खाद्य सामग्री के अधिकतम मूल्य निर्धारित हो जाते हैं। सन 2017 में वस्तु एवं सेवाकर यानी जीएसटी लागू होने के बाद यह भी संभव हुआ है कि अगर विक्रेता विक्रय मूल्य की जीएसटी अदा करता है, तो व्यापारी अधिकतम विक्रय मूल्य से अधिक कीमत पर विक्रय करने को स्वतंत्र होता है। ग्राहक के पास गुणवत्ता परखने का कोई उपाय नहीं है। वह अधिक कीमत को ही गुणवत्ता का पैमाना मानकर अपेक्षाकृत महंगी वस्तुओं को प्राथमिकता दे रहा है। इस तरह वह मूल्य ठगी का आसान शिकार बन रहा है।
देश में उचित मूल्य निर्धारण की प्रक्रिया पर कभी गंभीर चर्चा की कोशिश तक नहीं हो सकी है। उपभोक्ता हितों की रक्षा के लिए आवश्यक है कि सरकार उत्पादन लागत और बाजार व्यय के आधार पर वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करने और अतिरिक्त मुनाफाखोरी से होने वाली महंगाई वृद्धि पर लगाम लगाने का स्थायी तरीका निकाले।
भारत में बढ़ते आनलाइन व्यवसाय ने कीमतों में आर्कषक छूट को विज्ञापित कर ग्राहकों को अपनी तरफ आकर्षित किया है, लेकिन ग्राहक प्राय: यहां भी ठगी का शिकार हो रहा है। उसे छूट पाने के लिए उसकी आवश्यकता से अधिक खरीद करने का प्रलोभन दिया जाता है। भुगतान के लिए उसे तय बैंक के ही क्रेडिट कार्ड से भुगतान करने पर अतिरिक्त छूट का प्रस्ताव दिया जाता है। इस तरह ई-कामर्स कंपनियां ‘अंडर कटिंग’ के माध्यम से कई बार ग्राहक को ठगती नजर आती हैं।
थोक खरीदारी समझौते के तहत अनेक निर्माता कंपनियां खुदरा बाजार से प्रतिस्पर्धा करने के लिए एक जैसी पैकिंग में कम गुणवत्ता और कम वजन का उत्पाद तैयार कर उपलब्ध कराती हैं। कई बार अनेक ई-कामर्स कंपनियां अपने उत्पाद को न के बराबर कीमत पर विज्ञापित जरूर करती हैं, लेकिन उसके साथ लगने वाले डाक खर्च आदि कई गुना बढ़ा कर ग्राहक से वसूल लेती हैं। इस तरह ग्राहक आसान ठगी का शिकार होता है।
परिवहन आदि पर भी राज्य सरकारों ने भाड़ा दर निर्धारित करने को लेकर कभी गंभीर प्रयास नहीं किए हैं। राज्य सरकारें इसे महंगाई नियंत्रित करने के उपाय के रूप में नहीं देख पा रही हैं। माल ढुलाई के लिए ‘टांसपोर्ट यूनियन’ अपने मुनाफे के आधार पर मनमानी दरें ही निर्धारित नहीं कर रही हैं, बल्कि अतिरिक्त अधिभार भी सम्मलित कर रही हैं। अक्सर माल भाड़ा बिल्टी में स्टेशनरी शुल्क की वसूली भी हुआ करती है, जो कि ट्रांसपोटरों द्वारा दी जाने वाली पावती का शुल्क है।
पावती प्राप्त करना ग्राहक का अधिकार है, लेकिन इस अधिकार के लिए प्राप्तकर्ता से अधिभार वसूला जा रहा है। प्रशासनिक नियंत्रण के अभाव में इस मुनाफा कमाई को अंजाम दिया जाता है। अब वक्त है कि सरकार उपभोक्ता हितों और महंगाई नियंत्रण के लिए लागत मूल्य के आधार पर विक्रय मूल्य अंकन की प्रणाली निर्धारित करे।