अतुल कनक
पिछले दिनों कावेरी नदी जल बंटवारे को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच एक बार फिर विवाद के स्वर तेज हुए। पानी की मांग को लेकर सितंबर के अंतिम सप्ताह में, पहले बंगलुरु बंद रखा गया और बाद में संपूर्ण कर्नाटक में बंद का आह्वान किया गया। हालांकि दोनों राज्यों के बीच यह विवाद नया नहीं, करीब डेढ़ सौ वर्ष पुराना है। कुछ अवसरों पर तो इसने बहुत उग्र रूप भी धारण किया है।
सन 1991 के अंत में कन्नड़ समर्थक संगठनों ने बंगलुरु में तमिलों की पूरी बस्ती को आग लगा दी थी। तब कर्नाटक में कावेरी विवाद के कारण भीषण तमिल विरोधी माहौल को हवा दी गई। भीड़ को काबू करने के लिए पुलिस को गोली चलानी पड़ी और उसमें सोलह लोग मारे गए थे। एक ही देश के दो प्रांतों के नागरिकों के बीच भय और दुश्मनी का माहौल बन गया था।
कावेरी नदी दक्षिण भारत की सबसे पवित्र नदियों में एक है। दक्षिण-पश्चिम कर्नाटक में पश्चिमी घाट की ब्रह्मगिरी पहाड़ी से निकल कर करीब आठ सौ किलोमीटर बहने के बाद यह बंगाल की खाड़ी में मिलती है। कर्नाटक और तमिलनाडु के अलावा इसका प्रवाह केरल और पुदुचेरी में भी है। सन 1881 में जब तत्कालीन मैसूर राज्य (आधुनिक कर्नाटक) ने कावेरी नदी पर बांध बनाना चाहा, तो मद्रास प्रेसिडेंसी (आधुनिक तमिलनाडु) ने इसका विरोध किया, क्योंकि बांध बनने के बाद निचले हिस्से की ओर के प्रवाह को मनमाने तरीके से नियंत्रित किया जा सकता था।
तब दोनों राज्यों के बीच एक समझौता हुआ। सन 1892 में हुए समझौते के मुताबिक कर्नाटक, केरल, तमिलनाडु और पुदुचेरी को मिलने वाले पानी की मात्रा निश्चित कर दी गई। सन 1924 में कर्नाटक और तमिलनाडु के बीच एक बार फिर समझौता हुआ। 1960 के दशक में कर्नाटक ने कावेरी के ऊपरी प्रवाह क्षेत्र में चार जलाशय बनाने का प्रस्ताव रखा, जिसे केंद्र सरकार ने खारिज कर दिया। इसके बावजूद कर्नाटक ने जलाशयों का निर्माण करवा लिया और इस तरह 1924 में हुआ समझौता 1974 में निष्फल हो गया।
स्थितियों के अध्ययन के लिए एक तथ्यान्वेषण समिति बनाई गई, जिसने सन 1976 में अपनी रपट दी। इस रपट को संबंधित राज्यों ने स्वीकार कर लिया। मगर जब कर्नाटक ने हरंगी बांध का निर्माण शुरू किया, तो तमिलनाडु को अपने हितों की रक्षा के लिए सर्वोच्च न्यायालय जाना पड़ा। नदी के पानी की जरूरत दोनों राज्यों के नागरिकों को थी और दोनों नदी जल का अपने-अपने हित में अधिकाधिक दोहन करना चाहते थे।
इसलिए अधिक पानी लेने के लिए दोनों ही राज्यों के अपने-अपने तर्क थे। अंतत: विवाद सुलझाने के लिए केंद्र सरकार ने कावेरी जल विवाद अधिकरण बनाया, जिसने 25 जून, 1991 को यह निर्देश दिया कि कर्नाटक सरकार एक साल के अंदर तमिलनाडु के लिए 5.8 लाख करोड़ लीटर पानी जारी करे। उस समय कर्नाटक में एस. बंगरप्पा की सरकार थी।
वह अधिकरण के इस आदेश के खिलाफ विधानसभा में एक अध्यादेश लाई, लेकिन सर्वोच्च न्यायालय ने उस अध्यादेश को रद्द कर दिया। इसके बाद पूरे कर्नाटक में तमिल विरोधी प्रदर्शन हुए। जुलाई, 2000 में तो इस विवाद में उस समय फिल्मी कलाकारों और डाकुओं की भी घुसपैठ हो गई, जब दक्षिण भारत के सुपरस्टार राजकुमार को कुख्यात चंदन तस्कर वीरप्पन ने अपहृत कर लिया। राजकुमार को छोड़ने के लिए वीरप्पन ने जो मांगें रखी थीं उनमें यह मांग भी थी कि 1991 के कावेरी जल विवाद में जिन तमिलों को नुकसान उठाना पड़ा, उन्हें अच्छा-खासा मुआवजा दिया जाए।
सन 2007 में कावेरी जल विवाद अधिकरण ने निर्णय दिया कि तमिलनाडु को 41.92 फीसद, कर्नाटक को 27.36 फीसद, केरल को 12 फीसद और पुदुचेरी को 7.68 फीसद पानी उनकी आवश्यकताओं को देखते हुए दिया जाए। मगर सन 2012 में कर्नाटक ने तर्क दिया कि राज्य में पर्याप्त बारिश नहीं हुई है, इसलिए तमिलनाडु को दिए जाने वाले पानी का हिस्सा घटाया जाए।
मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। तमिलनाडु के लिए पानी छोड़े जाने के विरोध में कर्नाटक में सत्ताधारी जेडीएस के पांच विधायकों ने इस्तीफा दे दिया। सन 2016 में सर्वोच्च न्यायालय ने कर्नाटक को निर्देश दिया कि दस दिन के भीतर तमिलनाडु के लिए छह हजार घनमीटर पानी छोड़ा जाए। इस फैसले का कर्नाटक में भारी विरोध हुआ। हिंसक प्रदर्शन हुए। 2017 में सर्वोच्च न्यायालय ने तमिलनाडु के हिस्से को घटाया, तो इस बार तमिलनाडु में हंगामा हुआ।
उसके अगले वर्ष सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को आदेश दिया कि कावेरी जल की निगरानी के लिए एक बोर्ड का गठन किया जाए। 2022 में कावेरी जल प्रबंधन अधिकरण ने तमिलनाडु के पक्ष में दस हजार घनमीटर पानी छोड़ने की बात कही तो फिर कर्नाटक में विरोध की लहर चल पड़ी। इस साल कावेरी जल प्रबंधन अधिकरण ने 13 सितंबर को आदेश दिया कि कर्नाटक अगले पंद्रह दिनों तक तमिलनाडु के लिए पांच हजार घनमीटर पानी दे। मामला फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंच गया। न्यायालय ने इस फैसले को लागू रखा तो कर्नाटक में विरोध की नई लहर चल पड़ी।
कर्नाटक का कहना है कि उसने अपने लिए आबंटित जल स्तर के अनुरूप अपने यहां विकास किया है और इस साल राज्य में वर्षा भी अपेक्षाकृत कम हुई है। उसे आबंटित जल के उपयोग का अधिकार होना चाहिए। कर्नाटक के नेताओं का कहना है कि अगर रामनगर की मेकेदातु परियोजना को पूर्ण होने दिया जाता है, तो समस्या का किंचित समाधान किया जा सकता है।
क्योंकि इस परियोजना के अंतर्गत जो जलाशय बनाया जाना है, उसमें संचित जल को आवश्यकता पड़ने पर छोड़ा जा सकता है। विशेषज्ञों का कहना है कि इस समय कावेरी में जितना पानी है, उसकी मात्रा पिछले सौ सालों में सबसे कम है। स्पष्ट है कि ऐसे में उन मानदंडों का निर्वहन शायद मुश्किल हो, जो नदी में भरपूर पानी के समय तय किए गए थे।
विशेषज्ञ लगातार कहते रहे हैं कि अगर भविष्य को बचाना है तो नदियों और जल स्रोतों को बचाना ही होगा। प्राकृतिक जल स्रोतों के प्रति हमारी लापरवाही या फिर प्राकृतिक कारणों से उनमें घटता पानी कैसी स्थिति पैदा कर सकता है, कावेरी जल विवाद से भी इसे समझा जाना चाहिए। यों कावेरी जल विवाद अकेला नहीं है, जो किसी नदी के पानी के बंटवारे को लेकर शुरू हुआ।
रावी और व्यास के जल बंटवारे को लेकर पंजाब, हरियाणा और राजस्थान में; नर्मदा नदी को लेकर मध्यप्रदेश, गुजरात, राजस्थान और महाराष्ट्र में; कृष्णा नदी को लेकर आंध्रप्रदेश, तेलंगाना, कर्नाटक और महाराष्ट्र में, महादई नदी को लेकर गोवा, कर्नाटक और महाराष्ट्र में और बसंधरा नदी को लेकर आंध्रप्रदेश और ओड़ीशा में समय-समय पर विवाद होते रहे हैं।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी जार्डन नदी के पानी के बंटवारे को लेकर इजराइल, लेबनान, जार्डन और फिलीस्तीन लंबे समय से आमने-सामने हैं। सिंधु नदी को लेकर भारत और पाकिस्तान तथा ब्रह्मपुत्र के जलोपयोग को लेकर भारत और चीन में कितनी ही बार तनाव के हालात बने हैं।
कहते हैं कि अंतरराष्ट्रीय नदी जल समझौतों का इतिहास करीब पांच हजार साल पुराना है। ईसा से 2500 साल पहले सुमेरियाई सभ्यता के दो नगरों, लगास और उम्मा के बीच तिगरिस नदी के जल के बंटवारे को लेकर एक संधि के प्रमाण मिले हैं। बौद्ध कथाओं में भी उल्लेख है कि गौतम बुद्ध ने शाक्य और कोलियों के राज्यों के बीच बहने वाली रोहिन नदी के जल बंटवारे को लेकर एक विवाद सुलझाया था।