सुरेश सेठ
अगर आज देश के आर्थिक विकास को देखें, तो नजर आता है कि भारत की मौद्रिक परिस्थितियों के भाग्यनियंताओं ने पिछले एक वर्ष से कीमतों पर नियंत्रण की नीति अपना रखी है। पहले देश के आर्थिक विकास को गतिमान करने के लिए सहज साख नीति अपनाई गई थी, जिसमें ब्याज दरों को कम करके निवेशकों को प्रोत्साहन दिया जाता था।
मगर ज्यों-ज्यों महंगाई ने आसमान छूना शुरू किया, उसके बाद देश की साख नीति बदल कर कीमत नियंत्रित की गई। पिछले दिनों सरकार ने यह घोषणा की थी कि मौद्रिक नीति सफल हो गई है और कीमतों पर नियंत्रण हो गया है। इसका कारण यह है कि देश का थोक कीमत सूचकांक शून्य से नीचे चला गया था और खुदरा कीमतों का सूचकांक भी रिजर्व बैंक द्वारा निर्धारित सुरक्षित दर यानी छह फीसद से नीचे चला गया।
पर, इसके बाद असाधारण जलवायु, रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण आपूर्ति श्रृंखला का गड़बड़ाना, तेल उत्पादक देशों द्वारा तेल उत्पादन की पूर्ति बढ़ाकर उसकी कीमतों को बढ़ाने का प्रयास कुछ ऐसे सच थे, जिन्होंने भारत की अर्थव्यवस्था को यह आईना दिखाया कि जो परचून कीमतें कम हुई हैं, वे क्षणजीवी हैं, क्योंकि इनकी गणना खाद्य पदार्थों और दवा आदि चंद अन्य उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतें घटने के कारण थी।
क्षणजीवी इसलिए कहा, क्योंकि जैसे ही मौसम बदलकर अप्रत्याशित हो गया, यानी धारासार बारिश, अचानक बादलों का फटना और बाढ़ के उफान के साथ आम आदमी की धनसंपदा का हनन, ये कुछ ऐसे सत्य थे, जिन्होंने निम्न मध्यवर्ग और आम आदमी का जीवन दूभर कर दिया। उन्हें लगने लगा कि सुख और राहत के दिन अभी नजदीक नहीं।
रिजर्व बैंक भी चौकस हो गया है। पिछले दिनों मौद्रिक नीति समिति की बैठक मुंबई में हुई। वहां यह फैसला किया गया कि कीमतों के उतार-चढ़ाव की ओर ध्यान देना चाहिए। अब भी कीमतों का नियंत्रण निश्चित नहीं है, क्योंकि एक ओर तेल देशों द्वारा पूर्ति घटाकर कीमत बढ़ाने की कोशिश और दूसरी ओर असाधारण जलवायु के कारण देश की उपभोक्ता वस्तुओं की कीमतों में उछाल।
अर्थशास्त्र के जानकारों ने तो यही कहा कि अभी घटती कीमतों के प्रति निश्चिंत होकर अपनी मौद्रिक नीति, विकासमूलक करने की नहीं, यानी सहज साख नीति नहीं अपनाई जा सकती। अब यह बात उधेड़बुन जैसी थी। देश के भाग्यनियंताओं ने फैसला किया है कि फिलहाल मौद्रिक नीति की प्राथमिकताएं बदली न जाएं। अभी कीमत नियंत्रण मूलक नीति को ही जारी रहने दिया जाए।
कुछ विदेशी विद्वानों ने यहां तक कह दिया कि रेपो रेट, जिसमें मई 2022 से लगातार वृद्धि हो रही थी, जो फरवरी 2023 तक जारी रही और वह 6.5 फीसद तक पहुंच गया, उसके बाद से सरकार ने रेपो रेट को नहीं बढ़ाया और नई द्विमासिक मौद्रिक नीति की घोषणा में भी इसे सुरक्षित नीति को अपनाते हुए रेपो रेट में परिवर्तन नहीं किया।
इसलिए बचत प्रेरित ब्याज दरों में छेड़छाड़ नहीं होगी। हां, जिस ऊंचे स्तर पर ऋण निवेशकों और उत्पादकों को प्राप्त हो रहा है, वह उसी प्रकार जारी रहेगा। उसमें और उछाल नहीं आएगी। मगर यह एक अजब बात है कि हमारे देश में उच्च मध्यवर्ग और संपन्न लोगों का उपभोग और घरेलू निवेशकों का निवेश अपने प्रतिष्ठा संतोष या लाभ भावना को सामने रखकर किया जा रहा है।
अत: अभी तो हमारे मौद्रिक प्रेरित निवेश की राह में घटती ब्याज दर के पलक पांवड़े नहीं बिछाए जा रहे। ब्याज दर वही रहेगी। हां, उसकी वृद्धि फिलहाल रोक दी गई। इसका एक कारण यह है कि भारतीय निवेशक शेयर बाजार के उतार-चढ़ाव के साथ लाभ की प्रत्याशा से लागू ब्याज दर की ऊंचे स्तर की परवाह किए बगैर निवेश करने को तैयार हैं। इसीलिए विदेशी ऋण के फेडरल बैंक द्वारा ब्याज दर बढ़ाने के कारण भगोड़ा होने के बावजूद घरेलू निवेशकों ने निवेश का स्तर नीचे नहीं होने दिया।
अर्थ विशारदों ने बताया है कि देश में बाकी विश्व की तरह से मंदी के आसार नहीं। कहा जा रहा है कि हमारी घरेलू मांग के बेलोचदार होने के कारण मंडियों में मांग का स्तर घटकर निवेश की हाराकिरी जैसा नहीं होगा। देश में मांग का स्तर बना रहेगा। नए आंकड़े बता रहे हैं कि इन दिनों बढ़ी हुई ब्याज दरों का सामना करते हुए भी घरेलू निवेश और उपभोग आश्चर्यजनक रूप से कम नहीं हुआ, बल्कि एक अजब बात यह है कि भारत का धनी और उच्च मध्यवर्ग दनादन महंगे घर खरीदता जा रहा है। पिछले तीन महीनों में 71 फीसद घर जो 50 लाख रुपए प्रति घर से महंगे थे, वे बिक गए। कोलकाता में सबसे ज्यादा 105 फीसद बिक्री हुई और हैदराबाद में इन मकानों की कीमत इन्हीं दिनों में 11 फीसद बढ़ गई।
एक और हैरानी की बात कि एक करोड़ से महंगे मकानों की बिक्री सबसे ज्यादा यानी 39 फीसद बढ़ी है और देश में घरों की बिक्री का छह वर्ष का कीर्तिमान टूट गया है। तीन महीनों में सबसे ज्यादा तो नहीं, लेकिन काफी महंगे मध्य स्तर के 29,827 मकान बिक गए। कुल बिक्री में इनकी हिस्सेदारी 35 फीसद थी। लेकिन गजब देखिए कि किफायती घरों की बिक्री 11 फीसद घट गई।
कुल बिक्री में इनका हिस्सा 36 फीसद से घटकर 29 फीसद रह गया। इस बढ़ी हुई मांग को पूरा करने के लिए निर्माण क्षेत्र में इस वर्ग के मकानों की बिक्री बढ़ी और मध्यवर्ग के मकानों की बिक्री घटी। महंगे मकानों की बिक्री का बढ़ना और भारतीय वाहन उत्पादन क्षेत्र में छोटी गाड़ियों के बजाय बड़ी गाड़ियों की बिक्री का बढ़ जाना और एक तकनीकी विकास का वातावरण पैदा हो जाना, जिसमें बारह वर्ष में भारतीय वाहन उद्योग का मूल्य 83 लाख करोड़ हो जाएगा, यह ऐसी बात है जो गरीबों की बहुसंख्या वाले इस देश में हैरान करती है, क्योंकि गरीब वर्ग तो अपनी बचत को शून्य होता देखता है और केवल मूलभूत आवश्यकताओं में ही अपनी आय को जाते देखता है।
इन आवश्यकताओं को पूरा करने वाला उत्पादन ही रोजगारमूलक होता है। जब वहां मांग नहीं बढ़ रही, और उसके स्थान पर महंगी गाड़ियों और महंगे मकानों की मांग बढ़ रही है, जिसको पूरा स्वचालित उत्पादन क्षेत्र करता है, अरबों रुपए का निवेश करता है, रोजगार देने की जगह कृत्रिम मेधा और रोबोटिक वातावरण करता है, तो भला बताइए इस देश में गरीब आदमी को नौकरी मिलेगी तो कैसे? उसके लिए रोजगार के नए वसीले पैदा होंगे तो कैसे?
इसके लिए एक ही रास्ता था कि इन विशालकाय स्वचालित उद्योगों की तीव्र वृद्धि के साथ-साथ देश में लघु और कुटीर उद्योग विकसित होते, जिन उद्योगों में आर्थिक सीमांत पर ठिठके करोड़ों लोगों को रोजगार देने की सामर्थ्य है। मगर पाते हैं कि लघु और कुटीर उद्योगों को विकसित करने के लिए तो केवल मौखिक घोषणाएं और नारों की बतकही है।
असल विकास उस क्षेत्र में हो रहा है, जहां निजी क्षेत्र के खरबपति उस स्वचालित प्रक्रिया और डिजिटल धरातल पर जुटे हैं, जहां गरीब आदमी के लिए छंटनी ही छंटनी उसका दुर्भाग्य है। यह दुर्भाग्य कैसे सौभाग्य में बदले? क्या इसके लिए जरूरी नहीं कि देश को अपनी प्राथमिकताएं बदलनी चाहिए? तीव्र विकास के साथ रोजगारमूलक व्यवस्था को भी बढ़ावा मिले। जब तक गरीबों की बेकारी, उनके हाथों को यथायोग्य काम देकर दूर नहीं की जाती, तब तक अनुकंपा आधारित इस अर्थव्यवस्था में उनका भला नहीं होगा।