अलका ‘सोनी’
यह धरती विभिन्न प्रकार के प्राणियों से भरी हुई है, जिनके रूप, रंग और गुण आपस में बिल्कुल अलहदा हैं। सभी अपना-अपना महत्त्व रखते हैं और एक साथ मिलकर इस धरती को सुंदर बनाते हैं। इस धरती का अभिन्न अंग होने के कारण हमारा देश भी इन्हीं विविधताओं से भरा हुआ है। यहां लोगों, समुदायों, धर्म और संप्रदाय में व्यापक विविधता है और सबके अलग-अलग तरह-तरह के रीति रिवाज भी हैं।
इन सबको देखकर आनंद के साथ-साथ विस्मय भी होता है कि कैसे एक ही आबोहवा में इतनी सारी संस्कृतियां समान भाव से सांस लेती हैं। लेकिन सद्भाव की संस्कृति में एक सहज विभिन्नता से भरी इस दुनिया में दो चीजें हर जगह समान दिखती हैं।
दरअसल, ये दो चीजें ही इस संपूर्ण सृष्टि के होने का कारक है। यों कहें कि सृजन का आधार हैं। वे दो आधार हैं- स्त्री और पुरुष, जिनके बिना इस सृष्टि की कल्पना असंभव है और ये दोनों ही समान रूप से महत्त्वपूर्ण हैं। जैसे हमारी दोनों आंखें हमारे लिए समान रूप से महत्त्वपूर्ण होती हैं। क्या हम चुनाव कर सकते हैं कि कौन-सी आंख हमारे लिए ज्यादा महत्त्वपूर्ण है? इसका जवाब शायद हर व्यक्ति के लिए ‘न’ ही होगा। हां, एक इंसान और इंसानी संवेदना के लिहाज से देखें तो इस मामले पर हमारा दुख हर हाल में दृष्टिबाधित लोगों के मुकाबले कम ही होगा, उनके जीवट के सामने हमारा संघर्ष कम ही होगा।
बहरहाल, उदाहरण और प्रतीक के सहारे विचार की पटरी पर चलते हुए हम अपनी दोनों आंखों का ध्यान एक ही तरह से रखते हैं। क्या कभी ऐसा होता है कि किसी ने एक आंख का शृंगार किया और एक आंख को यों ही रहने दिया हो? इसका जवाब भी आमतौर पर ‘नहीं’ में ही होगा। जब हम शरीर के अंगों में असमानता नहीं बरतते तो फिर समाज के दो समान रूप से महत्त्वपूर्ण अंगों में भेदभाव क्यों करते हैं! बेटे और बेटी हमारी इन्हीं दोनों आंखों की तरह समान रूप से महत्त्वपूर्ण होते हैं।
दोनों को ही जन्म लेने से लेकर जीवन के हर कदम पर आगे बढ़ाने और जीवन को सुंदर बनाने के अवसर प्राप्त करने का समान अधिकार है। फिर इसमें अंतर क्यों दिखता है? बेटियों के प्रति हमारी संवेदना बुझी-बुझी-सी क्यों नजर आती है? उसमें भी अगर दूसरी या तीसरी संतान बेटी आ जाए तो अचानक से सबके व्यवहार बदल-से क्यों जाते हैं?
कहने को यह सामाजिक विषय पुराना जैसा लगने लगा है, लेकिन हकीकत यह है कि आज भी बहुत सारे शिक्षित कहे जाने वाले लोग भी बेटे और बेटियों को लेकर इस तरह के आग्रहों से संचालित होते हैं। कुछ समय पहले एक परिचित के घर एक ही समय में नववधू का आगमन हुआ था और साथ ही उनकी बड़ी बहू को दूसरी संतान के रूप में भी बेटी हुई थी। बच्चे के जन्म की खबर सुनकर कुछ लोग बाहर से भी आए। उन्होंने नववधू को खूब सारे आशीष दिए। जल्दी ही पौत्र लाने का मनुहार भी किया।
घर का माहौल बहुत अच्छा चल रहा था। तभी बड़ी बहू को अपनी दूसरी संतान को लेकर आने को कहा गया। वह खुशी-खुशी अपनी बच्ची को लेकर बाहर आई। पहले तो वहां मौजूद कुछ लोगों ने उसे प्यार से गोद में उठाया। लेकिन फिर उस बच्ची को लकड़ी की बनी कुर्सी की कठोर सतह पर उपेक्षा से रख दिया गया। उनमें से दो-तीन लोग हंसते हुए यह कहने से भी नहीं हिचके कि दूसरी संतान भी बेटी ही आई! क्या आशीर्वाद दिया जाए इसे!
हो सकता है कि यह बात हंसते हुए कही गई हो, लेकिन उन लोगों का यह व्यवहार देख सभी सन्न रह गए। महज दो माह की बच्ची का इतना ही कसूर था कि उसने उनकी दूसरी संतान के रूप में जन्म ले लिया था! हमारे देश में कन्या को देवी-तुल्य माना जाता है। नवरात्र के दौरान उनके चरण पूजने की होड़ मच जाती है। वहीं अगर उनके साथ इस तरह का भेदभाव हो तो यह समाज का विरोधाभासी रूप ही उजागर करता है, जहां एक बेटी को मां के गर्भ से लेकर जीवन के अंतिम पायदान तक दोयम होने का दंश झेलना पड़ता है।
हमें अपने घर से शुरू होने वाले इस भेदभाव की विषबेल को पनपने से रोकना होगा। एक बार जब यह परंपरा खत्म हो जाएगी तो फिर हर जगह उन्हें सम्मान और बराबरी का हक मिलेगा। फिर कोई भी बेटियों के साथ बुरा व्यवहार करने की हिम्मत नहीं कर सकेगा। हमारी संवेदनाएं मानव जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक है। हम बेटियों के प्रति भी संवेदनशील बनें, यह आज समय की मांग है। केवल महिला आरक्षण को लागू करके यह लक्ष्य हासिल नहीं होने वाला।
हमें महिलाओं के बारे में वैसी सामाजिक धारणाओं, पारंपरिक मान्यताओं को त्यागना होगा, बल्कि उनका विरोध करना होगा, जो महिलाओं को किसी प्रत्यक्ष या परोक्ष बंधन में जकड़ती हैं। इस बात पर गंभीरता के साथ विचार करने की जरूरत है। बेटियों के साथ अन्याय करके हमें अपनी संवेदना को नहीं मारना चाहिए। कोई भी संस्कृति तभी समृद्ध हो सकती है, जिसमें स्त्री को भी पुरुष के बराबर का दर्जा मिले।