नीरजा चौधरी
सीएम नीतीश कुमार ने बिहार जाति सर्वे के जरिए एक ऐसी गुगली चली है, जिससे वे एक बार फिर विपक्षी राजनीति के केंद्रबिंदु में आ गये हैं। जदयू सुप्रीमो आईएनडीआईए (INDIA) के संयोजक पद के लिए स्वाभाविक पसंद हैं। मुंबई बैठक में गठबंधन में कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे के एक सहयोगी ने निजी तौर पर कहा भी था कि कांग्रेस को इसमें कोई आपत्ति नहीं होगी। लेकिन यह चर्चा अभी शुरुआती दौर में है और अब भी आईएनडीआईए का कोई संयोजक नहीं है।
जद (यू) के भीतर अब यह भावना बढ़ रही है कि नीतीश उत्तर प्रदेश से लोकसभा चुनाव लड़ेंगे। कुर्मी बहुल फूलपुर जैसी सीट – एक प्रमुख निर्वाचन क्षेत्र जिसका प्रतिनिधित्व कभी जवाहरलाल नेहरू करते थे – ओबीसी समुदाय के साथ-साथ उसके सहयोगी समूहों के भीतर उनकी स्थिति को मजबूत करेगा। इनमें बिहार और छत्तीसगढ़ दोनों में कुर्मी, यूपी में पटेल (अपना दल का वोट बैंक), महाराष्ट्र में कुनबी मराठा (जो बीजेपी से नाराज हैं) और राज्यों में फैले गुज्जर शामिल हैं।
उनके पार्टी के सहयोगी दावा करते हैं कि यूपी से नीतीश कुमार के खड़े होने से राज्य में, बिहार, महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ में 50 से ज्यादा सीटों पर असर पड़ेगा।
नीतीश कुमार के जाति सर्वे के खेल से अति पिछड़ा वर्ग का भी समर्थन मिलेगा। इस सर्वे से पता चला कि राज्य की कुल आबादी में से 63 फीसदी ओबीसी हैं, जिसमें 36 फीसदी अति पिछड़ा वर्ग है। जब नीतीश कुमार भाजपा के सहयोगी थे, तब जदयू सुप्रीमो ने अगड़ी जाति, कुर्मी, अति पिछड़ा वर्ग, महादलित और पसमांदा मुस्लिम को साथ-साथ लाए थे, जिससे उनके और भाजपा के लिए चुनावी मैदान में काफी फायदा मिला था।
बिहार के भाजपा नेता निजी तौर पर यह स्वीकारते हैं कि यदि पिछड़ा वर्ग- और खास तौर पर अति पिछड़ा वर्ग- खुद के लिए अड़ जाते हैं, क्योंकि जाति रिपोर्ट में उनकी संख्या अधिक है, तो भाजपा के लिए कई सीटों को निकालने में मुश्किलें आएंगी।