घर-परिवार, सत्ता, स्वास्थ्य, शिक्षा, रोजगार, राजनीति, व्यापार आदि कमोबेश जीवन के हर क्षेत्र में आज भी लैंगिक असमानता का भेदभाव बरकरार है। संयुक्त राष्ट्र ने अपनी ‘द जेंडर स्नैपशाट 2023’ रपट में इस बात को बड़ी साफगोई से स्वीकार किया है कि आगामी लगभग एक दशक तक विश्व में लैंगिक समानता का लक्ष्य पूरी तरह सत्ता और समाज की पहुंच से फिसल चुका है।
चिंताजनक है कि मुख्य कार्य क्षेत्रों में निवेश में लगातार हो रही गिरावट इसके प्रमुख कारणों में से एक है। अब तक जिन क्षेत्रों में किंचित लक्ष्य हासिल हो रहा था, अब वे भी औंधे मुंह गिर रहे हैं। एक ताजा अध्ययन में बताया गया है कि विश्व भर की संसदों में आधी आबादी की हिस्सेदारी सिर्फ 26.7 फीसद और प्रबंधक स्तर पर 28.2 फीसद है। दुनिया की लगभग 10.3 फीसद महिलाएं मात्र दो सौ रुपए रोजाना की आय पर निर्भर हैं। अब इस औसत में भी तेजी से गिरावट दर्ज हो रही है।
भारतीय संविधान में स्त्रियों के लिए समानता की सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय प्राप्त करने की तमाम व्यवस्थाओं के बावजूद धरातल पर यथास्थितिवाद मौजूद है। वैश्विक रहनुमाई वाले जी-20 के सदस्य देश, अंतरराष्ट्रीय विकास के प्रमुख हिस्सेदार भी हैं। लैंगिक समानता के लिए इस मंच की प्रतिबद्धता भी सर्वज्ञात है। इस मंच से संक्षिप्त ‘स्मार्ट इकोनामिक्स’ के दृष्टिकोण को छोड़ने और जेंडर पर एक अलग जी-20 परिपथ स्थापित करने की सिफारिश हो चुकी है।
समाज विज्ञानियों का मानना है कि भारतीय परिवेश में चाहे जितनी तरह की चौकसी और सावधानियां बरती जाएं, चाहे जितने भी कठोर इंतजाम किए जाएं, लैंगिक रूढ़ियों और पुरुषवादी सोच को बदले बिना आधी आबादी को पूर्ण न्याय के साथ जीवन के सभी क्षेत्रों में समान अधिकार मिलना नामुमकिन है। लैंगिक असमानता की सच्चाई प्रगति को मुंह चिढ़ा रही है। आज भी करोड़ों लड़कियां शिक्षा की पहुंच से बाहर हैं। यूएन को तो अंदेशा है कि इस साल 12.9 करोड़ लड़कियां विद्यालयों से बाहर हो सकती हैं। इतना ही नहीं, आगामी दशक में ग्यारह करोड़ से अधिक लड़कियां स्कूली शिक्षा से वंचित हो सकती हैं। रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं की तुलनात्मक स्थिति 61.4 फीसद है। विज्ञान, तकनीक और अभिनव प्रयोगों में उनकी तादाद लगातार सिकुड़ रही है। अनुसंधान के क्षेत्र में तो यह अनुपात पांच गुना से भी कम है।
जी-20 ने पहली बार वर्ष 2009 के लंदन शिखर सम्मेलन में लैंगिक समानता के मुद्दे पर बात की थी। पहला अहम कदम 2012 में मैक्सिको में लास काबोस शिखर सम्मेलन में उठाया गया। इसी सम्मेलन में मैक्सिको की महिलाओं की सामाजिक और आर्थिक गतिविधियों में कम भागीदारी को देश के आर्थिक विकास में एक बाधा के रूप में पहचाना गया। उसके बाद रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में हुआ अगला शिखर सम्मेलन महिलाओं की उद्यमशीलता से जुड़ी क्षमताओं के लिए वित्तीय शिक्षा पर केंद्रित रहा।
2014 के ब्रिस्बेन एक्शन प्लान ने श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी को बढ़ाने और रोजगार की गुणवत्ता में सुधार की आवश्यकता पर जोर दिया। अंतरराष्ट्रीय विकास एजंसियां कोषगत ढांचा और नीति को आकार देने की अपनी क्षमता के कारण विकास क्षेत्र में एक अहम स्थिति रखती हैं, लेकिन उनका लैंगिक दृष्टिकोण अक्सर उस सीमा को कम कर देता है, जिस हद तक वे परिवर्तनकारी बदलाव को सूचित करने वाली प्रथाओं और नीतियों में योगदान कर सकती हैं।
पुराने जमाने से भारतीय समाज में महिलाओं को घर-परिवार के दायित्वों के ही अनुकूल माना जाता रहा है। इसीलिए तो वैश्विक लैंगिक अंतराल सूचकांक-2023 में भी भारत 146 देशों में 127वें स्थान पर है। यह मिथक आज चाहे जिस हद तक टूटता दिखे, आर्थिक क्षेत्र में पुरुषों के सापेक्ष अब तक उन्हें वैतनिक गैरबराबरी से जूझना पड़ रहा है। यहां तक कि रोजगार के अवसरों में भी वे द्वितीयक बनी हुई हैं। विज्ञान क्षेत्र की बात करें तो ‘मिसाइल वुमेन आफ इंडिया’ टेसी थामस के नाम से आज भी गिने-चुने लोग ही वाकिफ होंगे।
हां, खेल और मनोरंजन क्षेत्र में जरूर उनकी दखल बढ़ी है। यद्यपि वहां भी कुछ कम भेदभाव नहीं। वैधानिक स्तर पर सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बावजूद संपत्ति पर महिलाओं के समान अधिकार के प्रयास लंबित होकर रह गए हैं। श्रमशक्ति सहभागिता में लगभग हमारे सभी राज्यों में उनकी दरों में गिरावट बनी हुई है। महिलाओं को सम्मानजनक काम उपलब्ध कराने का लक्ष्य भी पहुंच से बहुत दूर है।
टिकाऊ विकास लक्ष्य का उद्देश्य लैंगिक समानता प्राप्त करने के साथ ही सभी महिलाओं को सशक्त बनाना है। सच यह भी है कि अगर यही गति बनी रही तो वैश्विक लैंगिक अंतर को पाटने में कम से कम 132 साल लग जाएंगे। विश्लेषकों का कहना है कि केवल धन की मात्रा बढ़ाने से लैंगिक न्याय सुनिश्चित नहीं किया जा सकता। लैंगिक समानता के लिए बढ़ती अंतरराष्ट्रीय प्रतिबद्धताओं के बावजूद इस मुद्दे को लेकर बनाए जाने वाले कार्यक्रमों के लिए धन में समवर्ती वृद्धि नहीं की गई है। ऐसे में तत्काल इससे संबंधित कार्यक्रमों के लिए धन के प्रवाह को बढ़ाना जरूरी है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस का कहना है कि लैंगिक समानता हासिल करना और महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना हमारे समय का अधूरा काम है, और यह हमारी दुनिया में सबसे बड़ी मानवाधिकार चुनौती है।
वैश्विक प्रतिबद्धताओं के बावजूद संवैधानिक प्रतिबद्धता और राजनीतिक सशक्तीकरण की स्थिति अत्यंत शोचनीय है। आधुनिक भारत में अब लैंगिक समानता को उत्पादकता में सुधार या विकास को बढ़ाने के साधन के बजाय एक लक्ष्य के रूप में अपनाया जाना समय की मांग है। केवल मानसिक सदिच्छा से काम नहीं चलने वाला, नकारात्मक सामाजिक मानदंडों और दृष्टिकोणों में बदलाव की सुनियोजित कोशिशों पर बल देना होगा। इसके साथ, कुछ सकारात्मक संकेत भी मिल रहे हैं। मसलन, भारत के ग्रामीण और शहरी स्थानीय निकायों में आरक्षण से लाखों महिलाओं का राजनीतिक हस्तक्षेप, साथ ही प्रशासनिक व्यवस्थाओं में भी प्रतिनिधित्व बढ़ा है।
भारतीय राजनीति में महिला आरक्षण का मुद्दा गंभीर विमर्शों में रहा है। वर्ष 1931 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को प्रेषित पत्र में बेगम शाहनवाज और सरोजिनी नायडू ने राजनीतिक स्थिति में महिला और पुरुष की पूर्ण समानता की मांग उठाई थी। महिलाओं के लिए राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य योजना ने वर्ष 1988 में अनुशंसा की थी कि महिलाओं को पंचायत से संसद तक आरक्षण मिलना चाहिए। इस सबके बावजूद, वैश्विक लैंगिक अंतर रपट, 2022 में भारत राजनीतिक सशक्तीकरण के मामले में 146 देशों की सूची में अड़तालीसवें स्थान पर रहा। इस श्रेणी के बावजूद अंक 0.267 के निम्नतम स्तर पर रहा।
उसके बाद राष्ट्रीय महिला सशक्तीकरण नीति 2001 में कहा गया कि उच्च विधायी निकायों में भी आरक्षण पर विचार किया जाएगा। मई 2013 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने महिलाओं की स्थिति पर विचार करने के लिए एक समिति का गठन किया, जिसने स्थानीय निकायों, राज्य विधानसभाओं, संसद, मंत्रिमंडलीय स्तर और सरकार के सभी निर्णयकारी निकायों में महिलाओं के लिए कम से कम पचास फीसद सीटों का आरक्षण सुनिश्चित करने की अनुशंसा की।
वर्ष 2015 में ‘भारत में महिलाओं की स्थिति पर रपट’ में दर्ज किया गया कि राज्य विधानसभाओं और संसद में महिलाओं का प्रतिनिधित्व निराशाजनक है। इसने भी स्थानीय निकायों, राज्य विधानसभाओं, संसद, मंत्रिमंडलीय स्तर और सरकार के सभी निर्णयकारी निकायों में महिलाओं के लिए कम से कम पचास फीसद सीटें आरक्षित करने की सिफारिश की थी। अब ‘नारी शक्ति वंदन अधिनियम’ कानून बन चुका है। गौरतलब है कि राजनीति में महिला आरक्षण विभिन्न स्तरों पर महिलाओं को सशक्त बनाता है।