बिहार सरकार ने गांधी जयंती के दिन जाति जनगणना के आंकड़े को सार्वजनिक कर दिया। बिहार में 13 करोड़ से ज्यादा की आबादी रहती है। वहीं इसमें सामान्य जातियों की संख्या 15.52 फीसदी है जबकि ओबीसी समुदाय की आबादी 27 फीसदी है। बिहार में सबसे अधिक पिछड़ा समाज के लोग हैं, जिनकी आबादी 36 फीसदी से अधिक है। वहीं इसके बाद इस पर राजनीति भी तेज हो गई है। बीजेपी ने इस जनगणना को झूठा बताया है।
साल 1981 में पहली बार अंग्रेजों के राज में जनगणना हुई थी। इसके बाद से हर 10 साल में जनगणना की जाती थी और यह जनगणना जातिवार की जाती थी। जातिगत जनगणना के आंकड़े आखिरी बार 1931 में जारी किए गए थे। उसके बाद 1941 में भी जातिगत जनगणना हुई थी, लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए।
1941 के बाद अनुसूचित जाति और जनजाति के आंकड़े सार्वजनिक किए जाते थे लेकिन बाकी जातियों की जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए जाते थे। 1951 में भी जातिगत जनगणना हुई थी लेकिन इसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। हालांकि इसकी मांग होती रही थी।
1951 में पहली बार आजाद भारत में जनगणना हुई थी। इस दौरान जातिगत जनगणना के आंकड़ों को सार्वजनिक करने की मांग की गई थी, लेकिन उस दौरान तत्कालीन गृह मंत्री सरदार पटेल ने इस प्रस्ताव को खारिज कर दिया और कहा कि इससे देश का ताना-बाना बिगाड़ सकता है। इसके बाद जातिगत जनगणना बंद हो गई और केवल जनगणना होती रही।
साल 2011 में केंद्र सरकार ने सामाजिक और आर्थिक जनगणना कराई, लेकिन उसके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए। इस दौरान संसद में बीजेपी के सांसद गोपीनाथ मुंडे ने जातीय जनगणना की मांग उठाई। हालांकि आंकड़े सार्वजनिक नहीं किए गए। मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद कई विपक्षी दलों ने जातिगत जनगणना की मांग उठाई है।
हालांकि 2021 में संसद में केंद्रीय गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने एक सवाल के जवाब में कहा था कि सरकार ने स्वतंत्रता के बाद एससी-एसटी के अलावा जातिवार जनगणना नहीं करने का फैसला किया है। अब बिहार सरकार ने जातिवार जनगणना के आंकड़े सार्वजनिक किए हैं और अब फिर से राजनीति तेज हो सकती है। अब देखने वाली बात होगी कि केंद्र सरकार का इस पर क्या रुख रहेगा?