योगेश कुमार गोयल
भारतीय संस्कृति में बुजुर्गों को अनुभवों का खजाना माना जाता रहा है, मगर चिंताजनक है कि बुजुर्ग अब परिजनों और समाज की उपेक्षा, दुर्व्यवहार सहित कई तरह की समस्याएं झेलने को विवश हैं। भारतीय समाज में सदा सयुंक्त परिवार को अहमियत दी जाती रही है, जहां बुजुर्गों का स्थान सर्वोपरि रहा है, मगर अब एकल परिवारों के बढ़ते चलन के कारण बुजुर्गों की उपेक्षा बढ़ रही है।
दरअसल, समाज में अपनी हैसियत बड़ी दिखाने की चाहत में कुछ लोगों को अपने ही परिवार के बुजुर्ग मार्ग की बड़ी रुकावट लगने लगते हैं। ऐसे लोगों को सामाजिक तौर पर अपनी खुशियों में बुजुर्गों को शामिल करना शान के खिलाफ लगता है। ऐसी ही रूढ़िवादी सोच के कारण उच्च वर्ग से लेकर मध्यवर्ग तक में अब वृद्धजनों के प्रति स्रेह की भावना कम हो रही है।
एक सर्वेक्षण के अनुसार भारत में करीब साठ फीसद बुजुर्ग महसूस करते हैं कि समाज में उनके साथ दुर्व्यवहार किया जाता है। पचपन फीसद ने अनादर, सैंतीस फीसद ने मौखिक दुर्व्यवहार, तैंतीस फीसद ने उपेक्षा, चौबीस फीसद ने आर्थिक शोषण तथा तेरह फीसद ने शारीरिक शोषण की बात स्वीकार की। देश में संयुक्त परिवार प्रणाली धीरे-धीरे टूटने के कारण ही ‘माता-पिता और वरिष्ठ नागरिकों का भरण-पोषण और कल्याण अधिनियम 2007’ अस्तित्व में आया था।
इसी अधिनियम को ज्यादा समकालीन और अधिक प्रभावी बनाने के लिए संशोधन विधेयक, 2019 लोकसभा में पेश किया गया, जिसमें भरण-पोषण का आवेदन करने के बाद नब्बे दिन के भीतर निपटारे का प्रावधान है, जबकि पहले नोटिस के बाद नब्बे दिन तय थे। पुराने कानून में बुजुर्गों के साथ गलत व्यवहार करने पर कोई प्रावधान नहीं था, जबकि नए विधेयक में तीन से छह महीने तक जेल या दस हजार रुपए जुर्माना या दोनों हो सकते हैं।
एक गैर-सरकारी संस्था की रपट के अनुसार भारत में 47 फीसद बुजुर्ग आर्थिक रूप से अपने परिवारों पर निर्भर हैं, 34 फीसद पेंशन और नकद हस्तांतरण पर निर्भर हैं, जबकि सर्वेक्षण में 40 फीसद लोगों ने यथासंभव काम करने की इच्छा व्यक्त की। सर्वेक्षण में यह बात भी सामने आई कि 71 फीसद वरिष्ठ नागरिक काम नहीं कर रहे थे, जबकि 36 फीसद काम करने को तैयार थे। यही नहीं, 30 फीसद से ज्यादा बुजुर्ग तो विभिन्न सामाजिक कार्यों के लिए स्वेच्छा से अपना समय देने को तैयार थे, जिससे स्पष्ट है कि अगर पुरानी पीढ़ी की ऊर्जा को पर्याप्त अवसर मिले तो भारत की आर्थिक और सामाजिक तस्वीर उज्ज्वल हो सकती है।
एक गैर-सरकारी संगठन की रिपोर्ट के अनुसार 2022 तक दुनिया में वरिष्ठ नागरिकों की आबादी 110 करोड़ और कुल आबादी की लगभग 14 प्रतिशत थी। 2050 तक यह आबादी बढ़कर 210 करोड़ और कुल आबादी की लगभग 22 प्रतिशत होने की संभावना है। एशिया में बुजुर्ग आबादी 2050 तक 130 करोड़ हो जाएगी। भारत में वरिष्ठ नागरिकों की आबादी अभी करीब 14.9 करोड़ है और एक रपट के मुताबिक 2026 तक यह 17 करोड़, 2036 तक 23 करोड़ तथा 2050 तक 35 करोड़ यानी कुल आबादी की 20 फीसद से भी ज्यादा होने का अनुमान है।
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय के अनुमान के मुताबिक 2036 तक दक्षिण भारत के राज्यों में हर पांचवां व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में होगा। बुजुर्ग आबादी में यह बढ़ोतरी निश्चित रूप से समाज और अर्थव्यवस्था पर प्रभाव डालेगी। ऐसे में वर्तमान और भविष्य की पीढ़ी की उचित देखभाल के लिए उचित प्राथमिकताएं निर्धारित करना सरकार की जिम्मेदारी है।
‘हेल्प एज इंडिया’ की नवीनतम रपट ‘वीमेन एंड एजिंग: इनविजिबल आर एंपावर्ड?’ में मई से जून 2023 के दौरान 60-90 वर्ष की आयु वर्ग की 7911 महिलाओं को इस सर्वेक्षण में शामिल किया गया। संगठन ने विभिन्न सामाजिक-आर्थिक श्रेणियों को शामिल करते हुए बीस राज्यों, दो केंद्रशासित प्रदेशों और पांच महानगरों में ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों के प्रतिभागियों के बीच यह सर्वेक्षण किया और रिपोर्ट में खुलासा हुआ कि सोलह प्रतिशत वृद्ध महिलाओं को दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ा, जिनमें से करीब पचास फीसद महिलाओं को शारीरिक हिंसा और छियालीस फीसद बुजुर्ग महिलाओं को अपमान झेलना पड़ा।
चालीस फीसद प्रतिभागियों को भावनात्मक या मनोवैज्ञानिक शोषण का सामना करना पड़ा। सर्वेक्षण में शामिल कुल चालीस फीसद महिलाओं ने अपने बेटों को दोषी ठहराया, जबकि इकतीस फीसद ने अपने रिश्तेदारों और सताईस फीसद ने अपनी बहुओं को जिम्मेदार बताया। रपट में यह खुलासा भी हुआ कि दुर्व्यवहार के बावजूद अधिकांश बुजुर्ग महिलाओं ने डर के कारण पुलिस को इसकी सूचना नहीं दी।
एक बेहतर भविष्य के लिए हम अपनी अगली पीढ़ी को निधि समझते हुए उसकी बेहतर परवरिश में कोई कमी नहीं छोड़ते। मगर तमाम जिम्मेदारियां निभाते-निभाते जब उम्र ढलने लगती और व्यक्ति शारीरिक तथा वित्तीय स्तर पर कमजोर होने लगता है, तो कई बार वह परिवार और समाज की उपेक्षा का शिकार होने लगता है।
भले बड़े गर्व के साथ यह कहा जाता है कि भारत की सत्तर फीसद आबादी नौजवानों की है, जो देश के लिए एक बड़ी पूंजी है, लेकिन यहां चिंता का विषय यह भी है कि क्या यह आबादी हमेशा युवा बनी रहेगी? उम्र बढ़ना जीवन की नियति है, जिससे हर किसी को गुजरना पड़ता है। विभिन्न शोधों के अनुसार साठ वर्ष तथा उससे ज्यादा उम्र में उच्च रक्तचाप, मधुमेह, फेफड़ों की बीमारी, हृदय रोग आदि कई तरह की बीमारियों का खतरा बढ़ जाता है।
बढ़ती उम्र और घटती प्रतिरोधक क्षमता बीमारियों का एक प्रमुख कारक है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय की ‘बुजुर्गों की स्वास्थ्य समस्याएं’ नामक एक रपट में बताया गया है कि 25 फीसद भारतीय बुजुर्ग अवसाद में जी रहे हैं, 33 फीसद गठिया या हड्डी के रोग से ग्रस्त हैं, 40 फीसद को रक्ताल्पता है, गांवों में 10 और शहरों में 40 फीसद को मधुमेह है, 10 फीसद कम सुनने संबंधी समस्या से गुजर रहे हैं। गांवों में 33 फीसद तो शहरों में 50 फीसद को हाइपरटेंशन है, करीब 50 फीसद की नजर कमजोर है, 10 फीसद भारतीय बुजुर्ग कहीं न कहीं गिरकर अपनी कोई न कोई हड्डी तुड़वा बैठते हैं, तो 33 फीसद पाचन तंत्र के विकार से जूझ रहे हैं।
पीढ़ी-अंतराल और जीवन-शैली में बदलाव के कारण बुजुर्ग व्यक्ति खुद में अलगाव और असुरक्षा महसूस कर रहे हैं। आर्थिक साम्राज्यवाद, भूमंडलीकरण, उदारीकरण और बढ़ते उद्योगीकरण ने भी आज बुजुर्गों को हाशिये पर धकेलने का काम किया है। टूटते संयुक्त परिवारों के कारण घर के बड़े बुजुर्ग एकाकी जीवन जीने पर मजबूर हो गए हैं। जिस घर में बुजुर्गों का सम्मान होता है, वह घर स्वर्ग से भी सुंदर माना जाता है।
इसके बावजूद बहुत से परिवारों में बुजुर्गों को निरंतर अपने ही परिजनों की उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है। ऐसे परिजनों को इस बात का आभास कराया जाना बेहद जरूरी है कि आज के युवा भी आने वाले समय में वृद्ध होंगे। जीवन में हम आज जो भी हैं, अपने घर के बुजुर्गों की बदौलत ही हैं, जिनके व्यापक अनुभवों और शिक्षाओं से हम जीवन में सभी प्रकार की कठिनाइयों को पार करने में सक्षम होते हैं।
ऐसे में अगर बुजुर्गों को अपनापन और उचित मान-सम्मान दिया जाए, उनकी पसंद-नापसंद का खयाल रखा जाए, तो वे घर के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण सिद्ध होते हैं। उम्र की ढलती सांझ में न केवल परिवार के सदस्यों, बल्कि समाज को भी उपेक्षित करने के बजाय उनका संबल बनने का प्रयास करना चाहिए।