सुखपाल सिंह खैरा की गिरफ्तारी से विपक्षी गठबंधन ‘इंडिया’ के दो दलों की लड़ाई सतह पर आ गई है। पंजाब के कांग्रेसी विधायक खैरा को पंजाब पुलिस ने एनडीपीएस कानून के तहत दर्ज 2015 के एक पुराने मामले में गुरुवार को गिरफ्तार कर लिया था। खैरा कांग्रेस के किसान संगठन के भी बड़े नेता माने जाते हैं। वे तीसरी बार विधायक हैं।
मजे की बात तो यह है कि दूसरी बार विधानसभा चुनाव उन्होंने आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार की हैसियत से जीता था। इतना ही नहीं अरविंद केजरीवाल ने कांग्रेस की अमरिंदर सरकार के दौरान खैरा को नेता प्रतिपक्ष भी बनाया था। यह बात अलग है कि इसी दौरान पार्टी आलाकमान से उनके मतभेद हुए तो उन्हें निलंबित कर दिया गया था।
नतीजतन पिछले चुनाव से पहले उन्होंने कांग्रेस में वापसी की और वे आम आदमी पार्टी की आंधी में भी जीत गए। उनकी गिरफ्तारी पर कांग्रेस के अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे भी खूब बरसे हैं। कांग्रेस के कुछ नेताओं ने तो केजरीवाल की पार्टी से कोई गठबंधन नहीं करने का भी एलान किया है। जबकि केजरीवाल ने शुक्रवार को भी दोहराया कि ‘इंडिया’ गठबंधन अटूट है। यह सारा खेल सीटों के तालमेल में एक-दूसरे पर दबाव बनाने की रणनीति का हिस्सा माना जा रहा है। अन्यथा केजरीवाल से यह सवाल पूछा जाना तो स्वाभाविक है कि अगर खैरा वाकई दागी हैं और 2015 के मामले में आरोपी थे तो 2018 में उन्हें आम आदमी पार्टी के विधायक दल का नेता क्यों बनाया था।
चेहरा पर पहरा
महारानी का अगला कदम अब क्या होगा? इसकी जिज्ञासा भाजपा से कहीं ज्यादा राजस्थान में सत्तारूढ़ कांगे्रस को होगी। बुधवार और गुरुवार की मैराथन बैठकों के बाद भाजपा आलाकमान ने राजस्थान की दो बार मुख्यमंत्री रह चुकी वसुंधरा राजे को साफ संकेत दे दिया कि नवंबर में होने वाला विधानसभा चुनाव पार्टी सामूहिक नेतृत्व में लड़ेगी।
मुख्यमंत्री का कोई चेहरा चुनाव से पहले घोषित नहीं किया जाएगा। पार्टी का चेहरा खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी होंगे। वसुंधरा राजे की शिखर नेतृत्व से अदावत पुरानी है। जरा याद कीजिए 2014 को। ऐतिहासिक स्पष्ट बहुमत वाली पहली भाजपा सरकार के शपथ ग्रहण समारोह से नदारद रहने वाली वसुंधरा भाजपा की इकलौती मुख्यमंत्री थी।
जहां दक्षेस के सदस्य देशों के राष्टÑाध्यक्षों तक को नई सरकार ने अपने शपथ ग्रहण समारोह में बुलाया था वहीं उनकी पार्टी की नेता और राजस्थान की तब की मुख्यमंत्री वसुंधरा एक दिन पहले अमेरिका चली गई थीं। दरअसल राजग सरकार में अपने सांसद बेटे दुष्यंत सिंह को मंत्री पद नहीं दिए जाने से वे अंदरखाने नाराज थीं। पर अपने ऐसे तेवरों का उन्हें 2018 के विधानसभा चुनाव और उसके बाद लगातार खमियाजा भी भुगतना पड़ा है।
विधानसभा चुनाव में पार्र्टी आलाकमान ने मुख्यमंत्री रहते हुए भी मुख्यमंत्री का चेहरा घोषित नहीं किया। चुनाव प्रचार के दौरान ही आलाकमान को अपने सर्वेक्षण से आभास हो गया कि वह 200 में से 20-25 सीटें ही जीत पाएगी। सो प्रचार के बीच में ही आलाकमान को एलान करना पड़ा कि पार्टी की सरकार बनी तो मुख्यमंत्री वसुंधरा ही होंगी। लेकिन, इसी चुनाव में यह नारा भी खूब लगा-मोदी से कोई बैर नहीं, पर वसुंधरा तेरी खैर नहीं।
भाजपाइयों और संघियों के इस नारे ने ही पार्टी की नैया डुबो दी। भाजपा बहुमत से काफी पिछड़ गई और सूबे में सरकार कांगे्रस की बन गई। उसके बाद तो आलाकमान और वसुंधरा के बीच चूहे और बिल्ली का खेल शुरू हो गया। वसुंधरा को नेता प्रतिपक्ष बनाने के बजाए आलाकमान ने पार्टी का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बना दिया। पर उन्होंने इस दायित्व को कभी संभाला ही नहीं।
आलाकमान ने भी उन्हें हाशिए पर धकेल दिया। पार्टी के फैसलों में उनसे राय-मशविरा बंद हो गया। अब विधानसभा चुनाव में यह जानते हुए भी कि वसुंधरा की नाराजगी पार्टी को महंगी पड़ सकती है, आलाकमान ने उनके प्रति कड़ा रुख ही अपनाया है। वसुंधरा भी सियासत के दांव-पेच समझती हैं। एक तरह से अगले दो महीने उनकी अग्निपरीक्षा के होंगे। पार्टी को बहुमत मिला तो उनका खेल खत्म समझो। अंजाम चाहे जो हो, आलाकमान ने झुकना नहीं सीखा। येदियुरप्पा को हटाना था तो हटा ही दिया। बेशक पार्टी की सत्ता में वापसी नहीं हो पाई।
कुनबे में धर्मनिरपेक्षता…
दिल्ली में नए दलों को न्योता देकर भाजपा ने राजग के कुनबे का विस्तार करते हुए 38 तक पहुंच जाने का दावा किया था। पर तमिलनाडु में उसका पुराना सहयोगी अन्ना द्रमुक ही साथ छोड़ गया। भाजपा धार्मिक आधार पर किसी भी तरह के आरक्षण के खिलाफ है। कर्नाटक में उसके नए बने सहयोगी जनता दल (सेकु) के मुखिया एचडी देवगौड़ा ने कहा कि उन्होंने भाजपा से लोकसभा चुनाव में सीटों का समझौता किया है, धर्मनिरपेक्षता से कोई समझौता नहीं करेंगे।
वहीं महाराष्ट के उपमुख्यमंत्री अजित पवार ने शिक्षा संस्थाओं में अल्पसंख्यकों को पांच फीसद आरक्षण देने की इच्छा जताई। उन्होंने वित्त मंत्री की हैसियत से अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री अब्दुल सत्तार और मंत्री हसन मुशरिफ के साथ बैठक भी कर ली। सत्तार जहां शिंदे की शिव सेना के हैं वहीं मुशरिफ पवार की एनसीपी के।
लेकिन भाजपाई उपमुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस की प्रतिक्रिया रक्षात्मक दिखी। बोले कि पवार के लिए यह आरक्षण सियासी जरूरत हो सकती है। पवार भी क्या करें? मराठा और धनगर तो पहले से ही अलग आरक्षण कोटा मांग रहे हैं। वे सभी दलों में बंटे हैं। ऐसे में अल्पसंख्यकों पर ही दांव लगाकर सियासी लाभ ले सकते हैं। (संकलन : मृणाल वल्लरी)