देश में महिला आरक्षण बिल दोनों लोकसभा और राज्यसभा से पारित हो गया है। मोदी सरकार के कार्यकाल में ये ऐतिहासिक कदम उठा लिया गया है, बड़ी बात ये है कि जो पार्टियां इसका पहले विरोध भी करती थीं, इस बार उनका समर्थन भी मिला है। इसी वजह से राज्यसभा में एक भी वोट खिलाफ में नहीं पड़ा और सर्वसहमति के साथ बिल को पास करवाया गया। इस बिल के पारित होते ही श्रेय लेने की एक अलग ही सियासत तेज हो चुकी है, बीजेपी मुख्यालय में मना जश्न और पीएम मोदी का किया गया गुणगान ये बताने के लिए काफी है कि इस नेरेटिव के सहारे आगामी लोकसभा चुनाव में पार्टी किस रणनीति पर आगे बढ़ने जा रही है।
बीजेपी को तो अपना नेरेटिव मिल गया है, लेकिन इस महिला आरक्षण बिल के सहारे एक और बड़ी रणनीति को धार देने का काम किया गया है। कहने को कांग्रेस से लेकर आरजेडी तक जैसे दलों ने महिला आरक्षण बिल का समर्थन किया, लेकिन सभी ने दो प्रमुख मागें भी रखीं- पहली महिला आरक्षण में भी ओबीसी के लिए अलग से कोटा। दूसरी- देश में जल्द से जल्द हो जातिगत जनगणना। यहां भी कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मोदी सरकार को ओबीसी विरोधी बताने की पूरी कोशिश की। उनकी तरफ से कहा गया कि वर्तमान सरकार में 90 केंद्रीय सचिव में से तीन ओबीसी हैं। उनका तर्क रहा कि ये पांच फीसदी लोग ही इस समय पूरे बजट को कंट्रोल कर रहे हैं।
अब महिला आरक्षण बिल को लेकर ये समझना जरूरी है कि, केंद्र सरकार द्वारा जो बिल लाया गया है, उसके तहत ओबीसी महिलाओं को भी आरक्षण देने की मांग जरूर हुई है, लेकिन अलग से कोटे की व्यवस्था नहीं की गई है। वर्तमान बिल के मुताबिक देश में एसी-एसटी के लिए जो 131 सीटें आरक्षित रहती हैं, वहां भी 43 सीटें महिलाओं के लिए रहने वाली हैं। लेकिन विपक्षी दल इस व्यवस्था से खुश नहीं हैं, वे ओबीसी समाज के साथ इसे अन्याय मान रहे हैं। उनके मुताबिक जब तक ओबीसी महिलाओं को अलग से आरक्षण नहीं दिया जाएगा, उनका सही प्रतिनिधित्व नहीं किया जा सकता। अब आरजेडी ये बात बोलती तो किसी को हैरान नहीं रहती, बसपा कहती तो भी लाजिमी लगता, लेकिन कांग्रेस के लिए इस ओबीसी पिच पर उतरना एक नया एक्सपेरिमेंट है।
कुछ समय पहले ही कर्नाटक चुनाव में एक रैली में राहुल गांधी ने जातिगत जनगणना की मांग उठाई थी, उस मामले में उनके विचार इंडिया गठबंधन के दूसरे तमाम दलों से मेल खाए थे। लेकिन कांग्रेस के लिए ये सहज पिच नहीं है, वो कहने को अब ओबीसी समाज को साधने के लिए जातिगत जनगणना की मांग कर रही है, लेकिन लंबे समय तक उसकी जैसी विचारधारा रही है, किसी एक जाति तक उसे सीमित रखना मुश्किल था। कांग्रेस पार्टी का पिछले कई सालों का इतिहास इस ट्रेंड को बखूबी समझा सकता है। असल में 90 के दौर में जब मंडल कमिशन आया था, ओबीसी राजनीति की अलग लहर देश में चल पड़ी। कांग्रेस को इसका सबसे ज्यादा नुकसान उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे हिंदी पट्टी वाले राज्यों में उठाना पड़ा। इन राज्यों में तो पार्टी हारी ही, इसके बाद उसकी ओबीसी रणनीति भी बिखराव का शिकार हुई।
इसे ऐसे समझ सकते हैं कि कांग्रेस कभी ब्राह्मिणों को खुश करने में लगी रही तो कभी अचानक से मुस्लिमों को जीतने के प्रयास में दिखी। इसी बीच कभी कबार उसने ओबीसी वर्ग को भी साधने की कोशिश की, लेकिन एक रणनीति कभी दिखाई नहीं पड़ी।
ऐसा नहीं है कि कांग्रेस हमेशा से ही ऐसी रही हो, लेकिन वक्त के साथ उसकी जातिगत रणनीति पीछे छूट गई और सारा फोकस ‘सेकुलर’ विचारधारा पर आ गया। वहां भी वो खुद को पूरी तरह सेकुलर नहीं रख पाई क्योंकि समय-समय पर सॉफ्ट हिंदुत्व का दांव उसकी तरफ से चला गया। पूर्व पीएम राजीव गांधी ने अगर राम मंदिर पर दांव चला था तो राहुल गांधी को एक समय कांग्रेस ने जनेऊधारी घोषित कर दिया था। वैसे कांग्रेस की विचारधारा में कन्फ्यूजन 1990 के बाद ज्यादा दिखा, उससे पहले तक हर राज्य में जातिगत रूप से पार्टी की मजबूत रणनीति देखने को मिल जाती थी। कौन भूल सकता है गुजरात में माधव सिंह सोलंकी की KHAM राजनीति जहां पर श्रत्रीय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिम को साथ ला तीन बार प्रचंड बहुमत के साथ सरकार बनाई गई। कर्नाटक का वो AHINDA फॉर्मूला भी तो कांग्रेस का ही रहा जिसके सहारे राज्य में अल्पसंख्यक और पिछड़े समाज को साधा गया।