सुशील कुमार सिंह
जलवायु सम्मेलन और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर कई वैश्विक मंच सजते रहे हैं। बढ़ते वैश्विक ताप और कार्बन उत्सर्जन समेत जलवायु को प्रभावित करने वाले कारकों को लेकर कई बैठकें हुईं, मगर वादे ठीक से निभाए नहीं गए। कार्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर विकसित देश बड़े वादे करते हैं, लेकिन वे जमीन पर नहीं उतरते। यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर मनमाफिक सफलता नहीं मिल पा रही है।
पृथ्वी के तापमान को संतुलित रखने और कृषि उत्पाद को व्यापकता के साथ मात्रात्मक बढ़त की ओर ले जाने की कवायद में पूरी दुनिया लगी है, मगर डेढ़ डिग्री सेल्सियस से अधिक तापमान बढ़ने से पारिस्थितिकी तंत्र उस बदलाव की ओर चला जाएगा, जहां से पूरा जीवन चक्र दुश्चक्र में उलझ जाएगा। जलवायु परिवर्तन के कारण 2050 तक दुनिया भर में भोजन की भारी कमी की आशंका जताई जा रही है।
इसकी बड़ी वजह फसलों की गिरती पैदावार, कृषि अनुसंधान में निवेश की कमी और व्यापार में गिरावट को जिम्मेदार समझा जा रहा है। कृषि अर्थशास्त्रियों के नवीनतम अध्ययन में पचास से साठ फीसद अधिक खाद्य उत्पादन की आवश्यकता आगामी पच्चीस वर्षों में पड़ेगी। दुनिया की आबादी तेजी से बढ़ रही है और जलवायु परिवर्तन के चलते कृषि नए संकट में उलझती जा रही है।
जलवायु परिवर्तन के चलते पैदावार में तीन से बारह फीसद की गिरावट का अनुमान लगाया गया है। गौरतलब है कि कैरी फाउलर, जो खाद्य सुरक्षा के लिए अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन के विशेष दूत हैं, ‘स्वालबार्ड ग्लोबल सीड वाल्ट’ के संस्थापक भी हैं। यह संस्था दुनिया भर में मौजूद बीजों के संरक्षण का काम करती है। आंकड़े बताते हैं कि दुनिया के 83 करोड़ लोग भुखमरी के कगार पर हैं। इसकी बड़ी वजह भोजन की बर्बादी भी है। भारत भूख सूचकांक में खिसक कर एक सौ सातवें स्थान पर चला गया है और यहां भुखमरी विकराल रूप ले रही है।
बाढ़, बारिश, गर्मी, सर्दी आदि का पृथ्वी पर ऐसा चक्र है, जो अनुरूप हो तो स्वास्थ्य, भोजन और जीव चक्र में अधिक प्रभावशाली हो जाता है और दुश्चक्र की स्थिति में यही उलट काम करने लगता है। मसलन, भूमि पर बढ़ता तापमान समुद्र के जलस्तर और उसके भीतर के तापमान को बढ़ाता, सूखा, बाढ़, अप्रत्याशित वर्षा और पशुधन तथा फसलों को नुकसान पहुंचाता है।
साल भर पहले केन्या के आधे हिस्से में सूखा पड़ा, जिससे फसलें प्रभावित हुईं और वहां के मुख्य भोजन मक्का का उत्पादन पचास फीसद रह गया। आस्ट्रेलिया में आई बाढ़ से गायों का एक बहुत बड़ा झुंड ही बह गया। इस वर्ष की बारिश ने भारत के कई क्षेत्रों को प्रभावित किया, फसलें बर्बाद हो गर्इं, हिमाचल जैसे पहाड़ी राज्य तबाही के कगार पर चले गए।
पूरे भारत में कमोबेश नुकसान हुआ। जलवायु परिवर्तन विश्व की पटकथा लिख रहा है। स्वास्थ्य का स्तर क्या होगा, कितना विकास होगा और किस स्तर का जीवन होगा, इन सभी की कहानी इसमें छिपी है। विश्व स्तर पर देखें तो पांच में से एक मौत स्वस्थ आहार की कमी, अनाज, फलों और सब्जियों की कम पैदावार तथा खराब खानपान के कारण होती है।
जाहिर है कि जलवायु परिवर्तन खाद्य पदार्थों की पैदावार को कमजोर कर देगा तो स्थिति का बिगड़ना स्वाभाविक है। भोजन में पोषण न हो, तब भी पेट तो भरा जा सकता है, मगर स्वस्थ रहना संभव नहीं है। उत्पादन स्तर अगर जनसंख्या के अनुपात में नहीं होता है, तो जलवायु परिवर्तन से दम घुटना संभव है। 2050 तक वर्तमान की तुलना में दो अरब लोगों के लिए अतिरिक्त भोजन की आवश्यकता पड़ेगी। भुखमरी के कगार पर खड़ी 83 करोड़ की आबादी के लिए पहले इसका इंतजाम हो, फिर आगे के पच्चीस वर्षों को ध्यान में रख कर भोजन जुटाया जाए।
वर्ष 2030 तक वैश्विक भुखमरी और कुपोषण को उसके सभी रूपों में समाप्त करने का एजंडा किसी विकट चुनौती से कम नहीं है। इसके पीछे भी जलवायु परिवर्तन ही मुख्य कारण है। संयुक्त राष्ट्र विश्व खाद्य कार्यक्रम के अनुसार औसत वैश्विक तापमान में पूर्व औद्योगिक स्तर से दो डिग्री सेल्सियस की वृद्धि 18.9 करोड़ अतिरिक्त लोगों को भुखमरी की ओर धकेलेगा।
जलवायु परिवर्तन पर अंतरराष्ट्रीय अंतरसरकारी समूह (आइपीसीसी) की रिपोर्ट से पता चलता है कि खाद्य उत्पादन और आजीविका को जलवायु परिवर्तन प्रभावित करेगा। मौसम के बदलते तेवर और देश में बेहिसाब होती बारिश, बाढ़ और सूखे के बीच गिरता उत्पादन कृषि झंझवात का उदाहरण है। विश्व बैंक के अनुसार भोजन सामग्री की घरेलू कीमतों में बढ़ोतरी भी दर्ज हो रही है। सूखे की समस्या ने इसे और विकराल बना दिया है।
हालांकि इस मामले में बारिश का प्रकोप भी कई क्षेत्रों में नुकसान पहुंचाता है। दक्षिण एशियाई देश तो मानो महंगाई के दुश्चक्र से बाहर ही नहीं निकल पा रहे। पाकिस्तान में महंगाई मानो उसके पूरे भू-राजनीतिक क्षेत्र को कुचलने पर आमादा है। बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, श्रीलंका भी इससे वंचित नहीं हैं।
अलनीनो का असर भी उत्पादन को कमजोर करता है। इस वर्ष भी दक्षिण पश्चिमी मानसून अलनीनो से प्रभावित था। 15 सितंबर तक चलने वाली मानसूनी बारिश मानो अगस्त के अंतिम सप्ताह में ही समाप्त होने लगी थी। पृथ्वी का तेवर गरम है। सितंबर की गरमी नए कीर्तिमान बना रही है। हालांकि बारिश जो हुई, वह कम नहीं कही जाएगी, लेकिन जहां हुई तबाही लाई।
गौरतलब है कि अलनीनो पेरू के तट से चलने वाली एक गरम जलधारा है, जो भारत में आने वाली दक्षिण पश्चिमी मानसून को कमजोर करती है। ऐसा छह से सात वर्षों में होता रहता है। 2009 में जलवायु पर अलनीनो के प्रभाव के चलते हालात विकट हो गए थे और सूखे के कारण खाद्य सामग्री की किल्लत पैदा हो गई थी। इसमें कोई दुविधा नहीं कि पृथ्वी पर जो भी पर्यावरणीय और पारिस्थितिकीय परिवर्तन होंगे, उनका सीधा असर खाद्य सामग्री पर पड़ेगा। कृषि उत्पाद के अभाव में जनजीवन अस्त-व्यस्त होगा, महंगाई बढ़ेगी और गरीब भूखे मरेंगे।
पृथ्वी की अपनी सीमा है। यह दस अरब लोगों का पालन-पोषण कर सकती है। अगर जलवायु परिवर्तन की निरंतरता पर लगाम नहीं लगती, तो कई चीजें बदलेंगी और उसमें सबसे ज्यादा बदलाव मानव जीवन का होगा। जलवायु परिवर्तन के कारण कीट-पतंगों में भी बढ़ोतरी होती है। बीमारियां बढ़ती हैं और नए जोखिम से दो-चार होना पड़ता है। गौरतलब है कि बीते कई वर्षों से डेंगू का प्रकोप बड़ी तेजी से बढ़ा है।
जलवायु परिवर्तन ऐसी बीमारियों को बढ़ावा दे रहा है, जो मानव जीवन के लिए संकट है। जलवायु सम्मेलन और पर्यावरण सुरक्षा को लेकर कई वैश्विक मंच सजते रहे हैं। बढ़ते वैश्विक ताप और कार्बन उत्सर्जन समेत जलवायु को प्रभावित करने वाले कई कारकों को लेकर कई बैठकेंहुईं, मगर वादे ठीक से निभाए नहीं गए। कार्बन उत्सर्जन में कटौती को लेकर विकसित देश बड़े वादे करते हैं, लेकिन वे जमीन पर नहीं उतरते। यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन को लेकर मनमाफिक सफलता नहीं मिल पा रही है।
जलवायु परिवर्तन का प्रभाव खाद्य उत्पादन, खाद्य सुरक्षा और पोषण जैसी चीजों पर तो पड़ ही रहा है, भोजन की खराबी का कारण भी इसमें निहित है। पिछले दशकों में कृषि और समुद्री क्षेत्रों पर जलवायु परिवर्तन के संभावित प्रभाव पर अधिक ध्यान दिया गया, मगर समुद्री जीव भी इस परिवर्तन से मुक्त नहीं हैं।
2050 तक पशुधन उत्पादों की वैश्विक मांग दोगुनी होने की उम्मीद है, जिसका सरोकार जलवायु परिवर्तन से जुड़े होने के तर्क से बाहर नहीं है। फिलहाल तनाव में सभी हैं। नदियां, बांध, झरने और भूजल संसाधन भी तनाव से गुजर रहे हैं। भारत का लगभग पैंसठ फीसद हिस्सा वर्षा आधारित कृषि का है।
पानी की कमी उत्पादन को नाजुक बना देती है। देखा जाए, तो आर्थिक विकास के बावजूद भुखमरी है। पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र को दुरुस्त किए बिना पूरी तरह खाद्य आवश्यकताओं को पूरा कर पाना संभव नहीं है। ऐसे में भुखमरी से दूरी बनाने और मानव जीवन के चक्र को चलाए रखने के लिए जलवायु परिवर्तन के संकट से पार पाना होगा।