पिछले 9 सालों में मोदी सरकार की एक खासियत रही है, लीक से हटकर समय-समय पर देश की जनता को बड़े सरप्राइज दिए जाते हैं। ये सरप्राइज ऐसे रहते हैं जो आम जनता के साथ-साथ विपक्ष को भी क्लीन बोल्ड करने का काम करते हैं। संसद के विशेष सत्र को लेकर ऐलान पिछले महीने ही कर दिया गया था, लेकिन एजेंडा साफ नहीं था। तीन बातों की अटकलें थीं- एक देश एक चुनाव, यूनिफॉर्म सिविल कोड और महिला आरक्षण बिल। अब विशेष सत्र से एक दिन पहले सर्वदलीय बैठक हुई, उसमें इन तीनों में से किसी भी बिल का जिक्र नहीं रहा। सभी को लगा कि ये विशेष सत्र बस नए संसद भवन में एंट्री के लिए बुलवाया गया है। लेकिन फिर आया महिला आरक्षण बिल वाला सरप्राइज, जैसे ही नई संसद में एंट्री हुई, सरकार ने अपना दांव चल दिया।
कानून मंत्री अर्जुन राम मेघवाल ने लोकसभा में नारी शक्ति वंदन अधिनियम पेश किया। इस बिल के तहत संसद और विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी आरक्षण देने की बात हुई। सरल शब्दों में लोकसभा की जो 543 सीटें हैं, वहां पर 181 महिलाओं के लिए आरक्षित रहेंगी। इसके अलावा देश में एसी-एसटी के लिए जो 131 सीटें आरक्षित रहती हैं, वहां भी 43 सीटें महिलाओं के लिए रहने वाली हैं। अब ये बिल ऐतिहासिक है, सही मायनों में महिलाओं को सशक्त करने वाला है, राजनीति में उनकी भागीदारी को बढ़ाने वाला साबित हो सकता है। लेकिन ये इस समय लागू नहीं होने वाला है। कम से कम पांच सालों तक नारी शक्ति वंदन अधिनियम कानून ही नहीं बनने वाला है।
असल में जब तक देश में जनगणना और परिसीमन नहीं हो जाता, नारी शक्ति वंदन अधिनियम कानून नहीं बन सकता है। यानी कि 2029 में ही महिलाओं को इस कानून का फायदा हो सकता है। अब इस बिल का ये वाला प्रावधन ही इसे विवादों में ला रहा है, विपक्ष सरकार की मंशा पर सवाल उठा रही है। सवाल ये कि जब कानून अभी बनना ही नहीं था तो इसे लाने का क्या मतलब? क्या सरकार बस चुनाव को देखते हुए इस बिल को लेकर आई है? सरकार जरूर इसे अभी के लिए राजनीति से ऊपर उठकर जनहित वाला कदम बता रही है, लेकिन इसके पीछे की छिपी सियासत असल में किसी से नहीं छिपी है।
ये इस देश की राजनीति की खूबसूरती है जहां पर पहले एक विचार आता है, फिर उस विचार को एक बिल का रूप दिया जाता है, फिर उस बिल पर लंबे समय तक बहस चलती है और फिर कई सालों बाद वो एक कानून का रूप लेती है। इस बीच सारा खेल नेरेटिव का चलता है, उसके दम पर कई चुनाव लड़ लिए जाते हैं, वोट भी मिलते हैं और पार्टी उस सियासत का पूरा फायदा उठा लेती है। इस समय बीजेपी को भी वो फायदा अपनी आंखों के सामने साफ दिख रहा है। इसे जम्मू-कश्मीर के अनुच्छेद 370 वाले विवाद से आसानी से समझा जा सकता है।
बीजेपी के घोषणा पत्र में कोई अभी से नहीं पिछले कई दशकों से ये वादा चल रहा था- हम अनुच्छेद 370 को खत्म करेंगे। लेकिन कई सालों तक वो सिर्फ एक वादा रहा, उसके नेरेटिव के दम पर बीजेपी ने राष्ट्रवाद के मुद्दे को धार दी और आखिरकार 2019 में उसे खत्म किया गया। यानी कि एक मुद्दे ने कई सालों तक सियासत को चमकाने का पूरा मौका दिया। राम मंदिर को लेकर 90 के दशक से जो विवाद चलता रहा, उसमें भी बीजेपी की उस रणनीति की एक झलक मिली। अब जानकार मानते हैं कि महिला आरक्षण बिल भी बीजेपी के लिए वो पॉलिटिक खाद है जिसके दम पर आने वाले पांच सालों तक वो आसानी से महिला वोटरों को लुभा सकती है।
इसे ‘उम्मीद वाली पॉलिटिक्स’ कहा जा सकता है जहां पर नारी शक्ति वंदन अधिनियम को पेश कर देश की महिलाओं में एक आशा की किरण जगा दी गई है। वर्तमान में बीजेपी की दोनों ही सदनों में जैसी ताकत है, उसे देखते हुए इसके पास होने की संभावना पहले के मुकाबले काफी ज्यादा है। इसी वजह से अगर ये बिल कानून का रूप 2029 तक भी लेता है, फिर भी महिलाओं के मन में जगी उस एक उम्मीद पर बीजेपी आसानी से अगले पांच सालों तक खेल सकती है। उसको खेल करने का मौका तो आगामी तीन विधानसभा चुनाव में भी मिलने वाला है- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़।
मध्य प्रदेश में कुल 5.39 करोड़ मतदाता हैं, वहां भी 48.20 फीसदी महिलाएं हैं। राज्य की कुल 50 ऐसी सीटे हैं जहां वर्तमान में पुरुषों की तुलना में महिला वोटर ज्यादा हैं। इसमें 18 आरक्षित सीटों को भी शामिल किया गया है। इसके अलावा 15 विधानसभा सीटें मौजूद हैं जहां पर महिलाएं ही किंगमेकर की भूमिका निभा रही हैं। जिस प्रत्याशी को उनका वोट मिल जाएगा, वहां पर उसकी जीत सुनिश्चित मानी जाएगी। अब एमपी में बीजेपी के पास इस समय तीन बड़े हथियार आ गए हैं- पहला मामा शिवराज सिंह चौहान जैसा चेहरा, दूसरा लाडली बहना योजना का जमीन पर बढ़ता असर और तीसरा और सबसे निर्णायक महिला आरक्षण बिल वाला नेरेटिव।
इसी तरह राजस्थान का ट्रेंड बताता है कि वहां पर 2013 और फिर 2018 के विधानसभा चुनाव के दौरान महिला वोटरों ने पुरुषों की तुलना में ज्यादा वोटिंग की। अगर 2013 में पुरुषों की 74.67 प्रतिशत की तुलना में महिलाओं ने 75.44 प्रतिशत वोट किया, इसी तरह 2018 में भी महिलाओं ने ही पुरुषों से ज्यादा अपने मताधिकार का इस्तेमाल किया। इसके ऊपर वसुंधरा राजे जैसा चेहरा बीजेपी को महिलाओं के बीच में लोकप्रिय बनाने का काम करता है। वहां भी अगर अब महिला आरक्षण वाला दांव अपना असर दिखाना शुरू कर दे, पार्टी के लिए चुनावी राह आसान हो जाएगी। असल में राजस्थान में पिछली बार बीजेपी और कांग्रेस के बीच में हार-जीत का अंतर मात्र पांच फीसदी के करीब रहा है। ऐसे में महिलाओं का अगर एकमुश्त या ज्यादा से ज्यादा वोट बीजेपी के पाले में आ गया तो राजस्थान में फिर सत्ता परिवर्तन होना तय है।
अब महिलाओं की इस अहमियत को नेशनल लेवल पर समझना भी जरूरी हो जाता है। ऐसे ही इन्हें आधी आबादी का तमगा नहीं दिया गया है, वर्तमान में सही मायनों में महिलाओं का वोट ही तमाम पार्टियों को सबसे ज्यादा पापड़ बिलवा रहा है। बीजेपी ने तो 2014 के बाद से ही इस महिला वोटर की ताकत को अच्छी तरह समझ लिया है। इसी वजह से उन छोटे-छोटे पहलुओं पर भी ध्यान दिया गया, जिन्हें शायद पहले उतनी तवज्जो नहीं जा रही थी। उदाहरण के लिए रिकॉर्ड शौचालयों का निर्माण होना, उज्जवला के तहत करोड़ों महिलाओं को एलपीजी सिलेंडर, जन धन के खाते खुलना, ये सभी वो योजनाएं हैं जिन्होंने ना सिर्फ लोकसभा बल्कि विधानसभा चुनाव में भी मोदी को महिलाओं के बीच में काफी लोकप्रिय बना दिया है। इसके ऊपर ट्रिपल तलाक के खिलाफ कड़ा कानून लाकर भी मुस्लिम महिलाओं के एक तबके तक भी बीजेपी की सेंधमारी हुई है।
वोटिंग का एक पैटर्न बताता है कि 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी को 29 फीसदी महिला वोट मिला था, वहीं 19 के चुनाव में वो बढ़कर 36 प्रतिशत तक पहुंच गया। इसके ऊपर हाल ही में जो यूपी के विधानसभा चुनाव हुए, उसमें तो बीजेपी ने 46 फीसदी महिला वोट अपने नाम किया। ये ट्रेंड ही बताने के लिए काफी है कि इस समय महिलाओं की पहली पसंद बीजेपी बन चुकी है, वहां भी पीएम मोदी का चेहरा ही वो एक्स फैक्टर है जिस वजह से पार्टी का प्रदर्शन महिलाओं के बीच में काफी अच्छा चल रहा है। इसके ऊपर अब जब 2029 तक महिला आरक्षण वाला बिल कानून का रूप लेगा, बीजेपी अपनी झोली में एक और बड़ा क्रेडिट लेने की कोशिश करेगी। इसे ऐसे समझ सकते हैं कि अभी आने वाले पांच सालों तक तो बस इस बिल के नेरेटिव के सहारे पार्टी खुद को आधी आबादी का सबसे बड़ा हितेशी बताएगी, वहीं जब ये कानून बन जाएगा, तब अलग तरह से क्रेडिट लेकर उसके नाम पर वोट पाने की कोशिश होगी। यानी कि आने वाले कई सालों तक के लिए बीजेपी ने महिला वोटरों का एक बड़ा तबका अपने पाले में करने के लिए अपनी सियासी चाल चल दी है।