कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने बुधवार को आरोप लगाया कि नये संसद भवन के उद्घाटन के दिन सांसदों को दी गई संविधान की प्रति में प्रस्तावना से ‘धर्मनिरपेक्ष’ और ‘समाजवादी’ शब्द गायब थे। मामले को गंभीर करार देते हुए चौधरी ने कहा कि शब्दों को बड़ी ही चालाकी से हटा दिया गया है। उन्होंने भाजपा की केंद्र सरकार की मंशा पर संदेह व्यक्त किया। इन सबके बीच एक बार फिर सेक्युलर और सोशलिस्ट शब्दों के अर्थ और उनके महत्व पर सवाल खड़ा कर दिया है। आइए जानते हैं कि ये शब्द कैसे संविधान में शामिल हुए।
अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि संविधान की जो नई प्रतियां हमें दी गईं, जिन्हें हम अपने हाथों में पकड़कर नए संसद भवन में प्रवेश कर गए। इसकी प्रस्तावना में ‘सोशलिस्ट सेक्युलर’ शब्द नहीं है। अधीर रंजन ने कहा कि हम जानते हैं कि ये शब्द 1976 में एक संशोधन के बाद जोड़े गए थे, लेकिन अगर आज कोई हमें संविधान देता है और उसमें ये शब्द नहीं हैं, तो यह चिंता का विषय है। उन्होंने कहा कि मैंने इस मुद्दे को उठाने की कोशिश की लेकिन मुझे इस मुद्दे को उठाने का मौका नहीं मिला।
सोशलिस्ट और सेक्युलर ये दो शब्द मूल रूप से प्रस्तावना का हिस्सा नहीं थे। इन्हें तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल के दौरान संविधान (42वां संशोधन) अधिनियम, 1976 द्वारा जोड़ा गया था। भारत को एक धर्मनिरपेक्ष देश के रूप में सामने रखने पर पिछले चार दशकों में गहन बहस हुई है। आलोचकों के साथ ही ज्यादातर दक्षिणपंथी दावा करते हैं कि ये थोपे गए शब्द छद्म धर्मनिरपेक्षता, वोट-बैंक की राजनीति और अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के लिए हैं।
इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी मिटाओ’ जैसे नारों के साथ एक समाजवादी और गरीब-समर्थक सरकार की छवि के आधार पर जनता के बीच अपनी छवि को मजबूत करने का प्रयास किया था। आपातकाल के दौरान उनकी सरकार ने यह शब्द प्रस्तावना में यह रेखांकित करने के लिए डाला कि समाजवाद भारतीय राज्य का एक लक्ष्य और दर्शन था।
हालांकि, भारत द्वारा परिकल्पित समाजवाद उस समय के यूएसएसआर या चीन का समाजवाद नहीं था। इसमें भारत के सभी उत्पादन के साधनों के राष्ट्रीयकरण की परिकल्पना नहीं थी। इंदिरा गांधी ने खुद स्पष्ट किया था कि हमारे पास समाजवाद का अपना ब्रांड है, जिसके तहत हम केवल उन क्षेत्रों का राष्ट्रीयकरण करेंगे जहां हमें जरूरत महसूस होगी। उन्होंने रेखांकित किया कि सिर्फ राष्ट्रीयकरण हमारे प्रकार का समाजवाद नहीं है।
भारत के लोग अनेक आस्थाओं को मानते हैं और उनकी एकता और भाईचारा, धार्मिक मान्यताओं में अंतर के बावजूद, प्रस्तावना में ‘धर्मनिरपेक्षता’ के आदर्श को स्थापित करके हासिल करने की कोशिश की गई थी। इसका मतलब यह है कि राज्य सभी धर्मों की समान रूप से रक्षा करता है, सभी धर्मों के प्रति तटस्थता और निष्पक्षता बनाए रखता है और किसी एक धर्म को राज्य धर्म के रूप में नहीं रखता है।
एक धर्मनिरपेक्ष भारतीय राज्य की स्थापना इस विचार पर की गई थी कि इसका संबंध इंसान और इंसान के बीच के रिश्ते से है, न कि इंसान और भगवान के बीच, जो कि व्यक्तिगत पसंद और व्यक्तिगत विवेक का मामला है। ऐसे में भारतीय संविधान में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक भावना का सवाल नहीं है, बल्कि कानून का सवाल है। भारतीय राज्य की धर्मनिरपेक्ष प्रकृति संविधान के अनुच्छेद 25-28 द्वारा सुरक्षित है।
सेक्युलरिज़्म हमेशा से संविधान के दर्शन का एक हिस्सा था। भारतीय गणराज्य के संस्थापकों ने संविधान में धर्मनिरपेक्षता के दर्शन को आगे बढ़ाने और बढ़ावा देने के स्पष्ट इरादे से अनुच्छेद 25, 26 और 27 को अपनाया। 42वें संशोधन ने केवल औपचारिक रूप से इस शब्द को संविधान में शामिल किया और यह स्पष्ट किया कि गणतंत्र के संस्थापक दस्तावेज़ के विभिन्न प्रावधानों और समग्र दर्शन में पहले से ही क्या निहित था।
वास्तव में, संविधान सभा ने इन शब्दों को प्रस्तावना में शामिल करने पर विशेष रूप से चर्चा की और ऐसा न करने का निर्णय लिया। के टी शाह और ब्रजेश्वर प्रसाद जैसे सदस्यों द्वारा इन शब्दों को प्रस्तावना में जोड़ने की मांग उठाने के बाद, डॉ बीआर अंबेडकर ने तर्क रखा कि मेरा तर्क यह है कि इस संशोधन में जो सुझाव दिया गया है वह पहले से ही प्रस्तावना के ड्राफ्ट में शामिल है।
हाल ही में,सुप्रीम कोर्ट में पूर्व भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी द्वारा दायर एक याचिका सहित कई अवसरों पर प्रस्तावना से समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष शब्दों को हटाने की मांग की गई थी। इस तरह की याचिकाएं पहले भी दायर की जा चुकी हैं। याचिकाकर्ताओं ने तर्क दिया है कि इन शब्दों का संविधान में शामिल होने का इरादा कभी नहीं था, और इस तरह का सम्मिलन अनुच्छेद 368 के तहत संसद की संशोधन शक्ति से परे है।
2008 में सुप्रीम कोर्ट ने सोशलिस्ट को हटाने की मांग वाली याचिका खारिज कर दी थी। भारत के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश केजी बालाकृष्णन की अध्यक्षता वाली तीन-न्यायाधीशों की पीठ ने कहा था, “आप समाजवाद को कम्युनिस्टों द्वारा परिभाषित संकीर्ण अर्थ में क्यों लेते हैं? व्यापक अर्थ में इसका अर्थ नागरिकों के लिए कल्याणकारी उपाय है। यह लोकतंत्र का एक पहलू है। इसका कोई निश्चित अर्थ नहीं है। अलग-अलग समय में इसके अलग-अलग अर्थ मिलते हैं।”