योगेश कुमार गोयल
देश के विभिन्न राज्यों में इन दिनों जहां बड़ी संख्या में लोग डेंगू की चपेट में आ रहे हैं, वहीं महाराष्ट्र के कोल्हापुर में एडीज मच्छर के काटने से फैलने वाली बीमारी ‘जीका’ के मामले मिलने के बाद प्रशासन सतर्क हो गया है। उधर केरल के कोझिकोड में निपाह विषाणु के बढ़ते मामलों से स्वास्थ्य विभाग में हड़कंप मचा है। केरल की स्वास्थ्य मंत्री का कहना है कि प्रदेश में जिस निपाह विषाणु की पुष्टि हुई है, वह इंसानों से इंसानों में फैलने और ज्यादा मृत्यु दर वाला बांग्लादेशी बहुरूप है। इससे छह संक्रमितों में से दो की मौत हो चुकी है।
भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद (आइसीएमआर) के महानिदेशक के मुताबिक 2018 में केरल में फैले निपाह का प्रकोप चमगादड़ों से संबंधित था, मगर संक्रमण चमगादड़ों से मनुष्यों में कैसे पहुंचा, इसकी कोई कड़ी स्थापित नहीं हो सकी। केरल में सभी मरीज ‘इंडेक्स मरीज’ (संक्रमण की पुष्टि वाले मरीज) के संपर्क में आने से संक्रमित हुए हैं। जहां कोविड में मृत्यु दर केवल दो से तीन फीसद के बीच थी, वहीं निपाह में मृत्यु दर चालीस से सत्तर फीसद के बीच है। इसके मद्देनजर अन्य राज्यों को भी सावधान किया गया है।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक पहली बार पच्चीस वर्ष पहले 1998 में निपाह विषाणु के बारे में पता चला था। तब मलेशिया के सुंगई निपाह गांव में निपाह विषाणु से संक्रमित लोगों के अनेक मामले सामने आए थे। इसी गांव के नाम पर विषाणु का नाम ‘निपाह’ पड़ा। तब सूअर पालने वाले किसान इस वायरस से संक्रमित मिले थे। इसके अलावा कुत्ते, बिल्ली, बकरी, घोड़े आदि पालतू जानवरों से भी संक्रमण फैलने के मामले सामने आए थे। उसी वर्ष सिंगापुर में भी इस विषाणु का पता चला था। उसके बाद 2001 में बांग्लादेश में निपाह से संक्रमित मरीज मिले और कुछ समय बाद बांग्लादेश से जुड़ी भारतीय सीमा के आसपास भी निपाह के मरीज मिलने लगे।
यह विषाणु मुख्य रूप से जानवरों से मनुष्यों में फैलता है और मानव से मानव में भी फैल सकता है। निपाह संक्रमण के लक्षण हल्के से लेकर गंभीर तक हो सकते हैं। हालांकि डब्लूएचओ तथा आइसीएमआर के अध्ययन से पता चला है कि केवल कोझिकोड नहीं, बल्कि पूरा केरल इस तरह के संक्रमण की चपेट में है और खासकर वन क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को सर्वाधिक सावधानी बरतने की जरूरत है। अध्ययन में कहा गया है कि नया विषाणु जंगली क्षेत्र के पांच किलोमीटर के दायरे के भीतर उत्पन्न हुआ है।
1998 से लेकर अब तक भारत सहित कुल पांच देशों- मलेशिया, सिंगापुर, बांग्लादेश और फिलीपींस में निपाह संक्रमण के मामले हैं। भारत के संदर्भ में चिंता की बात यह है कि 2018 से अब तक पिछले पांच वर्षों में यह वायरस केरल में चौथी बार सामने आया है। 2018 में कोझिकोड, 2019 में एर्नाकुलम, 2021 में कोझिकोड और अब फिर कोझिकोड में निपाह के मामले सामने आना कोई सामान्य स्थिति नहीं है। हालांकि 2019 और 2021 में निपाह का प्रकोप बहुत ज्यादा नहीं था और उससे दो लोगों की मौत के मामले सामने आए थे, लेकिन इस बार स्थिति गंभीर है। इस वर्ष केरल में निपाह का जो ‘स्ट्रेन’ पाया गया है, वह बांग्लादेश से आया है, जिसे पहले के मुकाबले कम संक्रामक अवश्य माना जा रहा है, लेकिन इससे मृत्यु दर बहुत ज्यादा है। 2018 में पहली बार केरल में निपाह विषाणु से तेईस लोग संक्रमित हुए थे, जिनमें से इक्कीस लोगों की जान चली गई थी।
आश्चर्य है कि तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद हमारा चिकित्सीय सुरक्षा तंत्र खतरनाक जानलेवा विषाणुओं और आपातकालीन संक्रामक रोगों से लड़ने के काबिल नहीं है। आंकड़ों की बाजीगरी दिखाते हुए प्राय: सरकारों द्वारा इस प्रकार के भयावह खतरों को कम करके दिखाने के प्रयास किए जाते हैं, पर अगर केरल में निपाह के प्रकोप की बात करें तो भले इससे मौतों का आंकड़ा स्वाइन फ्लू और डेंगू जैसी बीमारियों से होने वाली मौतों के मुकाबले कम रहता है, लेकिन इसके खतरे को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने निपाह विषाणु को अन्य विषाणुओं के मुकाबले ज्यादा खतरनाक बताया है, क्योंकि इसकी गिरफ्त में आने के बाद रोगी के बचने की उम्मीद कम ही रहती है। इसके अलावा, जब भी यह केरल में दस्तक देता है, इसका प्रभाव वहां के पर्यटन उद्योग पर भी पड़ता है।
करीब दो दशक पहले मलेशिया और बांग्लादेश में निपाह ने सैकड़ों लोगों की जिंदगियां लील ली थीं, पर उसके बाद इन देशों ने चिकित्सीय सुरक्षा प्रबंध कर निपाह संक्रमण पर सफलतापूर्वक काबू पा लिया। मगर हमारे दावे सदा जमीनी धरातल से दूर नजर आते हैं। आखिर हमारा चिकित्सीय ढांचा इतना कमजोर क्यों है कि तमाम दावों के बावजूद वह हर बार विषाणुओं से पनपने वाली संक्रामक बीमारियों से निपटने में लाचार नजर आता है? पिछले कुछ वर्षों से देश भर में विषाणु जनित कोई न कोई बीमारी कहर बरपाती है, अनेक लोगों की जान चली जाती है, लेकिन तमाम वैज्ञानिक उपलब्धियों के बावजूद हम ऐसी बीमारियों को पुन: विकराल रूप में सामने आने से रोकने के लिए कोई सार्थक योजना बनाने में नाकाम साबित हो रहे हैं। क्यों एक बार हमला बोल चुका विषाणु थोड़े समय बाद फिर से सक्रिय होकर रौद्र रूप में सामने आ जाता है?
चिंता की बात है कि विभिन्न प्रकार के विषाणुओं ने ‘एंटीबायोटिक’ को नष्ट करने की क्षमता वाले ‘एंजाइम’ बनाने में महारत हासिल करते हुए खुद को हर प्रकार की वातावरणीय परिस्थितियों के अनुकूल ढाल लिया है। यह विडंबना है कि जीका, इबोला, बर्ड फ्लू, निपाह, डेंगू, स्वाइन फ्लू जैसी विषाणु जनित बीमारियों की चपेट में आकर देश में हजारों लोग प्रतिवर्ष जान गंवा देते हैं, पर हमारी व्यवस्था अक्सर खोखले दावों के जरिए वाहवाही लूटने तक ही सीमित रहती है।
निपाह का संक्रमण काल प्राय: छह से इक्कीस दिनों तक का होता है और अधिकतर मामलों में यह जानलेवा साबित होता है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुसार निपाह से संक्रमित व्यक्ति में कभी-कभी कोई लक्षण नजर नहीं आता, लेकिन आमतौर पर इससे संक्रमित व्यक्ति को सांस लेने में तकलीफ, घातक इनसेफलाइटिस, मस्तिष्क में सूजन आदि की समस्या हो सकती है। इसके शुरुआती लक्षणों में आलस्य, बुखार, सिर दर्द, मांसपेशियों में खिंचाव, उल्टी आना, गले में दर्द आदि शामिल हैं। उसके बाद व्यक्ति को चक्कर आने, झपकी आने की समस्या के साथ याददाश्त, बोधगम्यता पर भी असर देखा जा सकता है, जो गंभीर इनसेफलाइटिस का संकेत है। ‘सेंटर फार डिजीज कंट्रोल ऐंड प्रिवेंशन’ के अनुसार निपाह विषाणु का संक्रमण इनसेफलाइटिस से जुड़ा है, जिसमें दिमाग को नुकसान होता है।
निपाह विषाणु का अभी तक कोई कारगर इलाज नहीं है। संक्रमित व्यक्ति की गहन चिकित्सीय देखभाल ही सबसे पहला उपचार है। इस संक्रमण के लिए सिर्फ लक्षणों और सहायक देखभाल को ध्यान में रखकर ही मरीज का उपचार किया जाता है। हालांकि शोधकर्ता ‘मोनोक्लोनल एंटीबाडी-इम्यूनोथेराप्यूटिक’ दवाएं विकसित करने के लिए प्रयासरत हैं, जो सीधे वायरस से लड़ेंगी, लेकिन अभी तक कोई लाइसेंस प्राप्त उपचार उपलब्ध नहीं है। स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक मास्क लगाना, सामाजिक दूरी, सेनिटाइजर का उपयोग आदि कोविड-19 जैसे निवारक उपायों और सावधानियों के जरिए ही निपाह संक्रमण से बचा जा सकता है। इनसेफलाइटिस से उबर चुके अधिकांश मरीज शारीरिक रूप से पूरी तरह स्वस्थ तो हो जाते हैं, लेकिन प्राय: देखा गया है कि उनमें तंत्रिका संबंधी समस्याएं लंबे समय तक बरकरार रहती हैं।