ब्रह्मदीप अलूने
तेल के सबसे बड़े निर्यातक सऊदी अरब में दुनिया की अर्थव्यवस्था, भू-राजनीति, ऊर्जा और सुरक्षा को प्रभावित करने की कई क्षमताएं मौजूद हैं। इस समय सऊदी अरब आर्थिक और रणनीतिक शक्ति संतुलन के बहुआयामी लक्ष्यों की ओर प्रेरित होकर भारत, अमेरिका, चीन, रूस, ईरान और इजराइल के साथ नियंत्रण और संतुलन की कूटनीति पर निरंतर आगे बढ़ रहा है।
इससे मध्यपूर्व की राजनीतिक स्थिति में गहरे बदलाव की संभावनाएं बढ़ गई है। ईरान के विदेश मंत्री ने हाल ही में सऊदी अरब की यात्रा की है, जो कई वर्षों में तेहरान के शीर्ष राजनयिक द्वारा वहां की पहली यात्रा है। ईरान और सऊदी अरब एक-दूसरे के देशों में राजनयिक मिशन फिर से खोल रहे हैं। यह समूचा घटनाक्रम बेहद महत्त्वपूर्ण है और इसका निश्चित ही वैश्विक राजनीति पर प्रभाव पड़ेगा।
सऊदी अरब की कई दशकों से अमेरिका से रणनीतिक साझेदारी रही है, जिससे अमेरिका के पूर्व और पश्चिमी एशिया में हितों का संवर्धन होता रहा है। सऊदी अरब और फारस की खाड़ी के अन्य तेल उत्पादक देशों को तेल के बदले सुरक्षा देना इस क्षेत्र में अमेरिकी विदेश नीति का बुनियादी हिस्सा रहा है, लिहाजा काफी लंबे समय से सऊदी अरब की विदेश नीति पर अमेरिका की परछाईं रही है। अब सऊदी अरब चीन के साथ आर्थिक और सामरिक संबंध मजबूत कर रहा है। सऊदी अरब और ईरान को साथ लाकर चीन ने अपना रणनीतिक महत्व बढ़ाया है, इसका फायदा पाकिस्तान को मिल सकता है।
मध्यपूर्व में शिया और सुन्नी विवाद के केंद्र में लेबनान, सीरिया, इराक और यमन जैसे और भी कई देश हैं जिन्हें सऊदी अरब और ईरान अपने अपने गुटों को आर्थिक सहायता के साथ हथियार भी देते है। सऊदी अरब के शासक मोहम्मद बिन सलमान ईरान को लेकर आश्वस्त होंगे, इसमें भी संदेह है। वे ईरान को अपने लिए सैन्य और वैचारिक स्तर पर अपने लिए खतरा मानते है। ईरान की आणविक क्षमताओं से सऊदी अरब भली-भांति परिचित है और वह अमेरिका से सिविल न्यूक्लियर रिएक्टर की मांग कर चुका है।
सऊदी अरब ईरान पर दबाव बनाए रखने के लिए इजराइल को लेकर किसी ठोस और व्यापक नीति पर काम नहीं कर रहा है। सऊदी अरब, ईरान को लेकर रिश्तों में गर्माहट जरूर दिखा रहा है लेकिन वह इजराइल को खारिज नहीं कर रहा है। अमेरिका से सामरिक लाभ लेने के लिए सऊदी अरब को इजराइल का विश्वास जीतना जरूरी है। यूएई, बहरीन और कतर जैसे देश में अमेरिकी सैन्य अड्डे मौजूद हैं।
ईरान की यही मांग रही है कि उन्हें यहां से हटाया जाए। सऊदी अरब को डर है कि ईरान पर से पूरी तरह से दबाव हटाने का मतलब होगा, उसे निर्विवाद रूप से इस्लामिक शक्ति बनाना और यह सऊदी अरब की महत्ता और इस्लामिक दुनिया में स्वीकार्यता के लिए आत्मघाती साबित हो सकता है।
सऊदी अरब के पास मुसलमानों के दो सबसे पवित्र स्थल मक्का और मदीना हैं। लिहाजा यह खुद को मुस्लिम दुनिया के नेता के रूप में देखता है। ईरान, तुर्की, पाकिस्तान और सऊदी अरब ऐसे देश हैं, जो पिछले कई दशकों से मुसलमानों के मुद्दों को लेकर आगे चलते हैं। उनके बीच अपनी धार्मिक पहचान की वजह से सऊदी अरब की रणनीतिक स्थिति अहम है, इसे बनाए रखते हुए सऊदी अरब को वैश्विक स्तर पर छाप भी छोड़नी है।
इस्लामिक शक्तियों से संबंध मजबूत रखते हुए भी सऊदी अरब सतर्कता से आगे बढ़ रहा है। सऊदी अरब के क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन-सलमान ने इस साल जनवरी में पाकिस्तान में निवेश 10 अरब डालर तक बढ़ाने को लेकर यह साफ कहा था कि वह अब किसी भी देश को वित्तीय मदद बिना शर्तों के नहीं करेगा। सऊदी अरब की नीति में यह बड़े बदलाव के रूप में देखा जा रहा है।
नियंत्रण और संतुलन की नीति पर चलते हुए तथा नई विश्व व्यवस्था के नए मजबूत दावेदार की भूमिका में उभरने के लिए सऊदी अरब भारत और पाकिस्तान की बीच मध्यस्थता के लिए तैयार दिखता है, वहीं रूस और यूक्रेन के बीच भी वह बातचीत का माहौल तैयार कर रहा है। इसके लिए सऊदी अरब ने अपने देश में एक सम्मेलन आयोजित कर भारत, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, चीन, रूस, अमेरिका जैसे देशों को आमंत्रित किया।
इसमें रूस शामिल तो नहीं हुआ, लेकिन उसनें इस पर नजरें होने की बात स्वीकार कर सऊदी अरब की कोशिशों को महत्व प्रदान कर दिया। यह भी दिलचस्प है कि सऊदी अरब ब्रिक्स का सदस्य बनने की कोशिशों में जुटा है। वो एससीओ का डायलाग पार्टनर है, ओपेक प्लस में उसने जिस तरह से रूस का साथ दिया है और तेल उत्पादन में कटौती की है।
सऊदी अरब अमेरिका को चुनौती देता हुआ नजर आ रहा है और इसे अमेरिका के राष्ट्रपति बाइडेन की कूटनीतिक विफलता भी माना जा सकता है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति ट्रंप ने मई 2017 में अपनी पहली विदेश यात्रा के लिए सऊदी अरब को चुना था और एक सौ दस अरब डालर के अमेरिकी इतिहास के सबसे बड़े सैन्य सौदे पर हस्ताक्षर किए थे।
इससे अमेरिका की उस मध्यपूर्व नीति को बल मिला, जिसमें सऊदी अरब की तरफ पूरी तरह झुकाव था और ईरान पर अधिकतम दबाव। इससे अरब देशों और इसराइल के बीच नए संबंधों का आगाज भी हुआ था। लेकिन ट्रंप के जाते ही स्थितियां बदल गई। सऊदी पत्रकार जमाल खाशोगी की हत्या में सऊदी क्राउन प्रिंस का नाम सामने आया, तो बाइडेन ने अपने चुनाव अभियान के दौरान क्राउन प्रिंस सलमान को सजा दिलाने की बात कह कर भावी राजनीति के कड़े संकेत दिए थे।
सऊदी अरब एकमात्र ऐसा देश है, जिसकी तटरेखा लाल सागर और फारस की खाड़ी दोनों के साथ है। रूस और चीन के साथ मिलकर सऊदी अरब एशिया में निर्णायक भूमिका में आ सकता है तथा उसकी कड़ी नीतियां अमेरिका और यूरोप का आर्थिक संकट बढ़ा सकती है। वहीं सऊदी अरब भारत का महत्त्वपूर्ण आर्थिक साझेदार अवश्य है, लेकिन पाकिस्तान के प्रभाव से वह बच नहीं सका है।
ईरान, चीन और सऊदी अरब की बढ़ती साझेदारी से भारत पर दबाव बढ़ सकता है और उसके सामरिक हितों को दीर्घकालीन चोट पहुंच सकती है। इसका प्रभाव हिंद महासागर पर भी पड़ सकता है।तेल पर से निर्भरता कम करने के लिए क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान ने एक महत्त्वाकांक्षी केंद्रीकृत विकास योजना विजन 2030 प्रारंभ की है।
इसके माध्यम से सऊदी अरब ने देश में पर्यटन, आवास, रक्षा, व्यापार तथा निवेश जैसे क्षेत्रों पर ध्यान केंद्रित करना प्रारंभ किया है जिससे आर्थिक राजस्व के स्रोतों का विविधीकरण किया जा सके। भारत इसमें भागीदार है। भारत तथा सऊदी अरब के मध्य द्विपक्षीय संबंधों में विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी सुरक्षा, निवेश व्यापार के साथ-साथ शिक्षा तथा ऊर्जा के क्षेत्र में भागीदारियां बढ़ रही है।
सऊदी अरब के साथ मजबूत संबंध न केवल भारत के हित में है बल्कि अमेरिका और इजराइल का प्रभाव भी इस खाड़ी देश पर कायम रहना चाहिए। अंतत: सामूहिक सुरक्षा की नीति पर चलना लोकतंत्र और वैश्विक सुरक्षा के लिए जरूरी है लेकिन सऊदी अरब, चीन, ईरान और रूस जैसे देश मिलकर संकट को बढ़ा रहे हैं।