कूटनीति करो तो ऐसी करो कि बाकी के 19 लोग किसी तरह की राजनीति नहीं कर पाएं। सोशल मीडिया ट्रेंड की तर्ज पर अमिताभ कांत तो अपने लिए ऐसी रील बना ही सकते हैं। जी20 सम्मेलन के दौरान हम सब जिस एक शब्द से परिचित हुए वह है-शेरपा। जी20 शिखर सम्मेलन में जिस तरह साझा बयान पास हो गया उसके बाद अमिताभ कांत के लिए चौतरफा तारीफों की बारिश होने लगी। शेरपा शब्द का संबंध पहाड़ों की चढ़ाई से है जो मुश्किल चढ़ाई के लिए लोगों के अगुआ होते हैं।
भारत की अध्यक्षता में जी20 की मुश्किल चढ़ाई को अमिताभ कांत ने जिस तरह से पार कराया वह चीन से लेकर रूस तक को चौंका गया। किसी को उम्मीद नहीं थी कि सभी अनुच्छेद पर सभी देशों की सहमति हो जाएगी। जी20 शिखर सम्मेलन के दौरान भारत में नाम को लेकर राजनीति चल रही थी। भारत बनाम इंडिया पर बहस हो रही थी। इस राजनीति को अमिताभ कांत ने जिस तरह से कूटनीति में बदला उससे लगता है कि उन्नीसवीं से लेकर बीसवीं सदी तक चलने वाला सबसे प्रमुख संवाद अप्रासंगिक हो जाएगा कि नाम में क्या रखा है? बस, एक नाम को अलग रखने से सारी दुविधा अलग हो गई। वह नाम था रूस।
अमिताभ कांत रूस को इस सूफियाना अंदाज में ले आए जो है भी और नहीं भी। जो हाजिर भी है और नाजिर भी। बाली से लेकर नई दिल्ली तक के जी20 के सफर में पश्चिम बनाम चीन-रूस का समीकरण ही बदल गया। नई दिल्ली में तैयार हुए समझौते में रूस का नाम ही नहीं लिया गया था तो फिर रूस ने भी बिना आपत्ति के उस पर दस्तखत कर दिए। यूक्रेन युद्ध के सिर्फ मानवीय पक्ष को समझौते का हिस्सा बनाया गया था, जिसे पश्चिम से लेकर चीन व रूस तक नहीं नकार सकते थे।
भारत ने ऐसी राजनीति की जिससे यह पूरा मंच ध्रुवीय राजनीतिकरण से बच गया। जिस चीन और रूस के अध्यक्षों की अनुपस्थिति को शुरू में सबसे बड़ी नाकामी माना जा रहा था वही अनुपस्थिति समझौते की वजह भी बन सकी। पश्चिम बनाम चीन-रूस की लड़ाई में भारत ऐसा मध्यस्थ बना जिसने मध्य शक्ति के देशों को बातचीत का झंडा पकड़ा दिया। अनुपस्थिति की इस कूटनीति की सफलता के शेरपा अमिताभ कांत ने जो किया उसे चीन के प्रमुख मीडिया मंच ने इस तरह बयां किया है-भारत ने खुद को अंतरराष्ट्रीय मंच पर आकर्षक तो बना लिया है।
उपचुनाव में हार दर हार से भाजपा नेतृत्व की चिंता तो जरूर बढ़ी होगी। मैनपुरी के लोकसभा उपचुनाव में डिंपल यादव की जीत पर विपक्ष ज्यादा शोर शराबा नहीं कर पाया था क्योंकि सीट मुलायम सिंह यादव के निधन से खाली हुई थी। हां, आजमगढ़ सीट जीत कर भाजपा ने यादवों के गढ़ में सेंध लगाने का दावा जरूर किया था। इसके बाद खतौली विधानसभा सीट के उपचुनाव में रालोद ने भाजपा को करारा झटका दिया। इससे पश्चिम में बनी भाजपा की हवा का रुख कुछ थमने का संदेश गया।
अब घोसी में तो सारे अनुमान ही ध्वस्त हो गए। हर कोई जानता है कि उपचुनाव में आमतौर पर सत्तारूढ़ पार्टी का उम्मीदवार ही जीतता है। मतदाताओं का मानस यही होता है कि विपक्ष को जिताया तो इलाके का विकास नहीं होगा। इसके बावजूद घोसी में विपक्ष का उम्मीदवार 42 हजार से भी ज्यादा मतों के अंतर से जीत गया। भाजपा उम्मीदवार दारासिंह चौहान सपा छोड़कर भाजपा में मंत्री पद की चाह में आए थे। यह सीट चौहान के इस्तीफे से ही खाली हुई थी। उनकी हार ने सुभासपा के बड़बोले नेता ओमप्रकाश राजभर के अरमानों पर भी पानी फेर दिया। भाजपा आलाकमान चौहान और राजभर को पहले ही मंत्री पद दे चुका होता अगर योगी आदित्यनाथ अड़ंगा न डालते।
संजय निषाद, राजभर और चौहान सरीखे दलबदलू लोगों को योगी खास भाव नहीं देते। अब चौहान के चक्कर में बेचारे राजभर भी गच्चा खा गए। पिता-पुत्र की जोड़ी ने घोसी में पूरी ताकत झोंकी थी। इलाके के अस्सी हजार राजभर मतदाताओं के वोट दिलाने का भरोसा दिया था। बड़बोलापन अब भी बरकरार है। तभी तो हेकड़ी के साथ कह रहे हैं कि दारासिंह चौहान और वे दोनों ही मंत्री बनेंगे। जिसमें ताकत हो, रोक ले। योगी को चिढ़ाने के लिए ही कहा होगा कि भाजपा में तो तीन ही नेता हैं आलाकमान, और उम्मीद कि दिल्ली से आएगा फरमान।
मध्यप्रदेश भाजपा ने जब से हारी हुई 39 विधानसभा सीटों के अपने उम्मीदवारों की सूची जारी की है, तभी से असंतोष चौराहे पर दिख रहा है। पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने अपनी अनदेखी पर गुस्सा भी निकाला। इंदौर में लोकसभा की पूर्व अध्यक्ष सुमित्रा महाजन पार्टी के प्रदेश नेतृत्व के खिलाफ लगातार मुखर हैं। अपनी अनदेखी से त्रस्त पार्टी के वरिष्ठ नेता रघुनंदन शर्मा ने तो नाम लिए बिना सूबे में आलाकमान की तरफ से बनाए गए पार्टी के पांच प्रभारियों की तुलना द्रौपदी से कर दी।
संवादहीनता का आरोप भी लगाया और चुनाव अभियान समिति के संयोजक केंद्रीय मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर पर भी वार करने से नहीं चूके। पार्टी ने मुरलीधर राव, अजय जामवाल, शिवप्रकाश, पंकजा मुंडे और रमाशंकर कठेरिया को बना रखा है सूबे का प्रभारी। शिवराज चौहान को मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं बनाने से उनके समर्थक मायूस हैं तो ज्योतिरादित्य सिंधिया के साथ पार्टी में आए लोगों को स्थानीय नेता नहीं पचा पा रहे हैं। असंतोष के कारण पार्टी छोड़ने वालों का न थमने वाला सिलसिला चल रहा है। अनुशासित पार्टी होने का दम भरने वाली भाजपा की इस अंदरूनी कलह पर कांग्रेसी तो खुश होंगे ही।
(संकलन : मृणाल वल्लरी)