अरविंद कुमार मिश्रा
भारत में पाए जाने वाले हरित अवशेष का एक बड़ा हिस्सा पशुधन आधारित अवशेष के रूप में मौजूद है। पशुधन से हर दिन एकत्रित होने वाले जैविक अवशेष में जैव ईंधन, बिजली और जैविक खाद तैयार करने वाले सभी अवयव पाए जाते हैं। कृषि अवशेष को अगर हम जैव ईंधन के लिए कच्चे माल के रूप में विकसित करते हैं, तो यह प्रदूषण जनित बीमारियों को कम करेगा।
बढ़ते जलवायु संकट में ऊर्जा के अक्षय स्रोत ही टिकाऊ हैं। पर्यावरणीय संकट के बीच दुनिया सौर, पवन, हाइड्रोजन और जैव ईंधन का विकास करने में जुटी है। ये गैर-जीवाश्म ईंधन से उलट कभी न खत्म होने वाले और स्वच्छ ईंधन हैं। इनमें जैव ईंधन इसलिए ऊर्जा का आकर्षक संसाधन माना जाता है, क्योंकि यह मुख्य रूप से फसलों और जैविक कचरे जैसे कृषि अपशिष्ट से तैयार होता है।
कृषि प्रधान देशों के लिए तो यह प्रकृति प्रदत्त वरदान की तरह है। आज अमेरिका पचपन फीसद हिस्सेदारी के साथ एथेनाल उत्पादन में अग्रणी है। वहीं ब्राजील सताईस फीसद अनुपात के साथ दूसरे पायदान पर है। असीमित संभावनाओं से युक्त भारत की हिस्सेदारी सिर्फ तीन फीसद है। 2022 तक देश की एथेनाल उत्पादन क्षमता 947 करोड़ लीटर पहुंच चुकी है।
एथेनाल, बायोडीजल और कंप्रेस्ड यानी संपीडित बायोगैस (सीबीजी) जैव ईंधन के लोकप्रिय उत्पाद हैं। एथेनाल एक तरह का अल्कोहल है, जो पेट्रोल-डीजल के साथ सम्मिश्रण उत्प्रेरक (ब्लेंडिंग एजंट) के रूप में इस्तेमाल होता है। यह पेट्रोल में मिलने पर उसकी गुणवत्ता को बढ़ा देता है। इससे कार्बन उत्सर्जन कम होता है। पहली पीढ़ी के एथेनाल खाद्यान्न में उपस्थित शर्करा और स्टार्च से तैयार होते हैं।
भारत में चावल, गन्ना और मक्के से एथेनाल बनाने की इजाजत है। इसी तरह दूसरी पीढ़ी के एथेनाल गैर-खाद्यान्न अवशेष (कृषि और पशु अपशिष्ट) से तैयार होते हैं। सूक्ष्म बैक्टीरिया और शैवाल से तीसरी पीढ़ी के एथेनाल बनाने पर शोध जारी है। जैव अवशेष को एथेनाल की शक्ल देने में परंपरागत रूप से सामान्य ‘फर्मंटेशन’ (किण्वन) प्रक्रिया ही कारगर है।
इस दौरान सूक्ष्म जीव पौधों के स्टार्च को अपघटित कर एथेनाल उत्पादित करते हैं। बायोडीजल भी जैव ईंधन का एक महत्त्वपूर्ण रूप है। इसे वनस्पति तेल और वसा से तैयार किया जाता है। होटल उद्योग में इस्तेमाल किया जा चुका खराब खाद्य तेल भी बायोडीजल बनाने में इस्तेमाल होता है।
देश की ईंधन जरूरतों को पूरा करने के लिए हमें अस्सी फीसद कच्चा तेल आयात करना पड़ता है। प्राकृतिक गैस के लिए पचास फीसद आयात पर निर्भरता है। देश में 31.5 करोड़ एलपीजी सिलेंडर और 1.5 करोड़ पीएनजी कनेक्शन हैं। सालाना तीन फीसद की दर से हमारी ऊर्जा खपत बढ़ रही है। ऐसे में जैव ईंधन को बड़ा नवीकरणीय ऊर्जा संसाधन माना जा रहा है। इसके विकास के लिए केंद्र ने कई बड़े कदम उठाए हैं। 5 जून, 2021 को एथेनाल सम्मिश्रण कार्यक्रम की शुरुआत हुई थी।
राष्ट्रीय जैव ईंधन नीति 2018 को जून 2022 में संशोधित किया गया। इसमें बीस फीसद एथेनाल सम्मिश्रण (ई-20) लक्ष्य को 2030 से घटाकर 2025 किया जाना सबसे अहम है। नवंबर 2022 तक दस प्रतिशत एथेनाल सम्मिश्रण का लक्ष्य समय से पहले हासिल किया जा चुका है। इससे 46 हजार करोड़ रुपए की बचत हुई है। सरकार ने उद्योग विकास एवं विनियमन कानून 1951 में संशोधन कर एथेनाल के देशव्यापी परिवहन को आसान बनाया है। एक रपट के मुताबिक देश में 1350 पेट्रोल पंप ऐसे हैं, जो ई-20 ईंधन मुहैया करा रहे हैं। भारत ‘एअर टर्बाइन फ्यूल’ में एक फीसद एथेनाल मिश्रण का सफल प्रयोग कर चुका है।
इस वक्त करीब नौ लाख करोड़ रुपए का विदेशी मुद्रा भंडार कच्चे तेल के आयात पर खर्च होता है। सरकार ने एथेनाल सम्मिश्रण को प्रोत्साहित करने के लिए इस पर जीएसटी अठारह फीसद से घटाकर पांच फीसद कर दी है। उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु जैव ईंधन नीति लागू करने के साथ पचहत्तर हजार करोड़ रुपए इससे जुड़ी अवसंरचना में निवेश कर रहे हैं।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ समेत कई राज्य जैव ईंधन से जुड़े नियम और प्राधिकरण स्थापित कर चुके हैं। छत्तीसगढ़ के कबीरधाम जिले में सार्वजनिक-निजी भागीदारी से देश का पहला एथेनाल संयंत्र शुरू हो चुका है। मध्यप्रदेश के छिंदवाड़ा और बालाघाट जिले में निजी कंपनी द्वारा स्थापित संयंत्र का परिचालन शुरू हो चुका है। केंद्र सरकार द्वारा शुरू की गई गोबर धन योजना कच्चा माल एकत्र करने में मददगार है।
कुछ राज्य सरकारों द्वारा इस दिशा में किए गए प्रयासों के सुखद परिणाम सामने हैं। हरियाणा के कुरुक्षेत्र में निर्माणाधीन पहले संपीडित बायोगैस संयंत्र से प्रतिवर्ष चार लाख टन जैव ईंधन उत्पादन होने की उम्मीद है। इसी के साथ करनाल में अगले साल तक बायोगैस संयंत्र का निर्माण पूरा हो जाएगा। इसमें प्रति वर्ष चालीस हजार टन पराली की खपत होगी। इससे किसानों को पराली जलाने की समस्या से तो निजात मिलेगी ही, उसके बदले उन्हें आय भी होगी। सार्वजनिक क्षेत्र की तेल कंपनियां पानीपत (हरियाणा), बठिंडा (पंजाब), नुमालीगढ़ (असम) और बरगढ़ (ओडीशा) में बायो रिफाइनरी की स्थापना कर चुकी हैं।
जैव ईंधन के प्रमुख रूप संपीडित बायोगैस (सीबीजी) को प्राकृतिक गैस का हरित संस्करण कहा जाता है। सीबीजी के पांच हजार संयंत्र देश भर में स्थापित किए जा रहे हैं। शुरुआती तौर पर इन संयंत्रों से डेढ़ करोड़ टन संपीडित बायो ईंधन (सीबीजी) का उत्पादन होगा। इन संयंत्रों के लिए कृषि, जंगल, पशुपालन, समुद्र और नगरपालिका से निकलने वाले कचरे की मदद से बायोगैस तैयार की जाएगी। यह तेल और परंपरागत प्राकृतिक गैस पर हमारी निर्भरता को कम करेगा।
जैव ईंधन भारत के लिए इसलिए भी वरदान है, क्योंकि खेती और पशुधन इसके लिए सस्ता कच्चा माल मुहैया कराते हैं। देश में धान की पुआल, कपास का डंठल, खराब हो चुका मक्का, चावल, लकड़ी का बुरादा, खोई, कसावा, सड़े आलू, गन्ना, गुड़ और शीरा से एथेनाल तैयार किया जा रहा है। भारत में पाए जाने वाले हरित अवशेष का एक बड़ा हिस्सा पशुधन आधारित अवशेष के रूप में मौजूद है।
पशुधन से हर दिन एकत्रित होने वाले जैविक अवशेष में जैव ईंधन, बिजली और जैविक खाद तैयार करने वाले सभी अवयव पाए जाते हैं। कृषि अवशेष को अगर हम जैव ईंधन के लिए कच्चे माल के रूप में विकसित करते हैं, तो यह प्रदूषण जनित बीमारियों को कम करेगा।
इसी कड़ी में बारह बायो रिफाइनरी देश भर में स्थापित की जानी हैं। कृभको गुजरात के हजीरा में 2 लाख 50 हजार लीटर क्षमता वाले बायो एथेनाल संयंत्र की स्थापना कर रहा है। बेकार मक्के को एथेनाल के लिए उपयोग में लाया जाएगा। इससे खाद्यान्न की बर्बादी भी कम होगी। एथेनाल बनाने के बाद जो अवशेष बचेगा, वह पशुचारे के रूप में उपयोगी होगा। यह पर्यावरण में कार्बन भी कम छोड़ता है। एक करोड़ लीटर एथेनाल लगभग बीस हजार टन कार्बन डाईआक्साइड उत्सर्जन को कम करता है।
भारतीय सूचना प्रौद्यौगिकी संस्थान कानपुर की रिपोर्ट के अनुसार ग्रामीण इलाकों में हरित अवशेष के खरीदार न मिलने से किसान कृषि अवशेष को जला देते हैं। इस क्षेत्र में सहकारी संस्थाओं की क्षमता और उनकी विशेषज्ञता का लाभ लेना चाहिए। विशेषज्ञों के मुताबिक ग्रामीण क्षेत्रों में जैव अवशेष केंद्रित ऊर्जा संयंत्र विकेंद्रित रूप में स्थापित हों।
अगर पंचायत स्तर पर बायोगैस संयंत्र स्थापित किए जाते हैं, तो हरित अवशेष एकत्र करने में लागत कम होगी। इसके साथ ही स्थानीय निकायों के स्तर पर उत्पादक और वितरक का तंत्र भी समांतर रूप से विकसित हो। हरित अवशेष से ऊर्जा तैयार करने से जुड़ी संरचनाएं जटिल और खर्चीली होने के कारण भी लोकप्रिय नहीं हो पा रही हैं।
इस दिशा में अगर विश्व जैव ईंधन के सदस्य देश तकनीक, वित्त और विशेषज्ञता का आदान-प्रदान करने में सफल हुए तो इसका लाभ भारत जैसी तेजी से उभरती अर्थव्यवस्थाओं को सबसे अधिक होगा। 2070 तक विश्व अर्थव्यवस्था को अगर शून्य कार्बन उत्सर्जन बनाना है, तो जैव ईंधन अहम कारक होंगे।