मनोज कुमार मिश्र
दिल्ली और देश पर सालों से राज कर रही कांग्रेस दिल्ली में दस साल से हाशिए पर पहुंच गई है। कहा गया कि कांग्रेस ने भाजपा के मध्य वर्ग के मतदाताओं को भाजपा से अलग करने के लिए दिल्ली में आम आदमी पार्टी को मजबूत करने में हर तरह से मदद की। यही आरोप भाजपा पर लगा कि वह दिल्ली से कांग्रेस को खत्म करने के लिए आप से केवल दिखावटी लड़ाई लड़ रही है। हालांकि आप ने इन दस साल में चाहे मुफ्त बिजली-पानी के नाम पर या चाहे बढ़िया प्रचार तंत्र का उपयोग करके दिल्ली में अपनी जड़े जमा कर इन अफवाहों को खारिज कर दिया।
अब आप दिल्ली की मुख्य राजनीतिक पार्टी है। इन दस साल में कांग्रेस को अपने को खड़ा करने के कई अवसर आए लेकिन उसके नेताओं पर सत्ता में रहने का खुमार उतरने का नाम ही नहीं ले रहा था, इसलिए वे उसका लाभ उठा नहीं पाए और दिल्ली में कांग्रेस अप्रासंगिक हो गई। आज भी दिल्ली में शीला दीक्षित की कांग्रेस के 15 साल के शासन को कांग्रेस का स्वर्णिम काल माना जाता है।
उनके शासन के दस साल के सहयोगी और किसी गुट विशेष के न माने जाने वाले अरविंदर सिंह लवली को दोबारा दिल्ली कांग्रेस की बागडोर सौंप कर कांग्रेस ने अपनी पार्टी को दिल्ली में खड़ा करने का एक अवसर खोजा है। सही मायने में तो हारी-थकी और सालों सत्ता का सुख लेने वाले कांग्रेस जनों के लिए दिल्ली में कांग्रेस को खड़ा करने का यह आखिरी अवसर भी माना जा रहा है।
अगले साल होने वाले लोकसभा चुनाव में अगर कांग्रेस 2019 के लोकसभा चुनाव से थोड़ा बेहतर प्रदर्शन कर दे तो कांग्रेस के दिन वापस लौटने लगेंगे। चौधरी अनिल कुमार के इस्तीफे के कई महीने बाद इसी 31 अगस्त को अरविंदर सिंह लवली को प्रदेश अध्यक्ष नियुक्त किया गया। वे 2013 से 2015 तक भी दिल्ली कांग्रेस के अध्यक्ष थे, तब परिस्थिति दूसरी थी। कांग्रेस लंबे शासन के बाद सत्ता से हटी थी। सत्ता की खुमारी उतरी नहीं थी।
खुद लवली 15 साल विधायक और दस साल दिल्ली सरकार के अनेक महत्त्वपूर्ण विभागों के मंत्री थे। मंत्री से हटते ही उन्हें प्रदेश कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया। तब हालात भी दूसरे थे। आप को कांग्रेस गंभीरता से नहीं ले रही थी। 2011 के दिल्ली में भ्रष्टाचार के खिलाफ समाजसेवी अण्णा हजारे के आंदोलन में शामिल अनेक लोगों ने 26 अक्तूबर 2012 को आप के नाम से राजनीतिक दल बनाकर 2013 में होने वाले दिल्ली विधानसभा चुनाव लड़ना तय किया।
अण्णा हजारे के न चाहते हुए राजनीतिक दल बना और अरविंद केजरीवाल की अगुआई में 2013 का विधान सभा चुनाव लड़ा गया। पहले ही चुनाव में ही बिजली-पानी मुफ्त का मुद्दा कारगर हुआ। आप को 70 सदस्यों वाली विधानसभा में करीब 30 फीसद वोट और 28 सीटें मिली। भाजपा करीब 34 फीसद वोट के साथ 32 सीटें जीती और दिल्ली में 15 साल तक शासन करने वाली कांग्रेस को 24.50 फीसद वोट के साथ महज आठ सीटें मिली।
कांग्रेस की कमजोरी और भाजपा की अधूरी तैयारी और बिजली-पानी मुफ्त करने के वादे ने आप को 2015 के चुनाव में दिल्ली विधानसभा में रिकार्ड 54 फीसद वोट के साथ 67 सीटों पर जीत दिलवा दी। उस चुनाव ने कांग्रेस को भारी नुकसान पहुंचाया। कांग्रेस कोई सीट नहीं मिली और उसका वोट औसत घट कर 9.7 पर आ गया। लवली के अध्यक्ष रहते परंपरा से हट कर पूर्व केन्द्रीय मंत्री अजय माकन को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया। चुनाव में माहौल ऐसा खराब हुआ कि लवली ने विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया।
2016 में दिल्ली नगर निगम के उपचुनाव में कांग्रेस आप के बराबर में खड़ी हो गई लेकिन 2017 के निगम चुनाव ले पहले कांग्रेस में इस कदर विवाद बढ़ा कि लगातार 15 साल तक मंत्री रहने वाले अशोक कुमार वालिया ने पार्टी छोड़ने की खुलेआम धमकी दे दी और लवली, पूर्व विधासभा उपाध्यक्ष अंबरीश गौतम, दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष रही बरखा सिंह ने कांग्रेस छोड़ भाजपा का दामन थामा। लवली और गौतम तो कुछ महीने में वापस कांग्रेस में आ गए, लेकिन बरखा सिंह भाजपा में ही रह गईं।
2020 के विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस गंभीर लग ही नहीं रह रही थी। भाजपा से कांग्रेस में आने वाले कीर्ति आजाद को पूर्वांचली वोट की वापसी करवाने के लिए प्रदेश की बागडोर सौंपते-सौंपते वरिष्ठ नेता सुभाष चोपड़ा को प्रदेश कांग्रेस की बागडोर सौंप दी। कीर्ति आजाद बेगाने होकर विधानसभा चुनाव के बाद तृणमूल कांग्रेस में शामिल हो गए। कांग्रेस को 2020 के विधानसभा चुनाव में केवल 4.26 फीसद वोट मिला। सुभाष चोपड़ा ने विधानसभा चुनाव के नतीजे आते ही प्रदेश अध्यक्ष पर से इस्तीफा दे दिया और पार्टी की बागडोर चौधरी अनिल कुमार को मिली। कांग्रेस दिल्ली में पूरी तरह से अप्रासंगिक हो गई।
31 अगस्त,2023 को अध्यक्ष बने अरविंदर सिंह लवली के सामने पार्टी को मुख्य धारा की पार्टी बनाने की बड़ी चुनौती है। उन्हें पार्टी कार्यकर्ता, नेता और समर्थकों में पार्टी को वापस उसकी जगह दिलाने का भरोसा देना है। जो पार्टी छोड़कर गए हैं उन्हें वापस पार्टी में लाने की चुनौती है। कांग्रेस के खोए जनाधार को वापस लाना है। इतना ही नहीं 2024 के लोकसभा चुनाव में अपने बूते 2019 के लोकसभा चुनाव से बेहतर नतीजे लाना है।
विपक्षी गठबंधन के बावजूद दिल्ली में कांग्रेस को निगलने वाली आप से स्थायी संबंध तय करवाने हैं। यह सभी आसान काम नहीं है। दिल्ली कांग्रेस के हर गुट के नेताओं से बेहतर रिश्ते रखने वाले ये सारे काम कठिन हैं लेकिन असंभव नहीं है। इस समय उन पर दिल्ली कांग्रेस के साथ उनका अपना राजनीतिक भविष्य भी दांव पर लगा है।