जलवायु परिवर्तन का असर अब धरती से लेकर समुद्र तक स्पष्ट दिखाई देने लगा है। जहां धरती गर्म हो रही है, वहीं समुद्र ठंडा नहीं हो पा रहा है। लिहाजा, मनुष्य समेत अन्य प्राणियों के रहवासों के तापमान में वृद्धि हो रही है। इस गर्मी का सबसे ज्यादा असर अमेरिका और यूरोप में अनुभव किया गया। इसकी वजह एएमओसी (अटलांटिक मेरिडियोनल ओवरटर्निंग सर्कुलेशन) का कमजोर होना है, जो ताप को पूरी धरती में बांटता है।
दरअसल, हम ईंधन जलाकर कारखानों, वाहनों और ऊर्जा संयंत्रों में जितनी ऊर्जा पैदा करते हैं, उसकी करीब साठ गुना यानी एक हजार टेरावाट ऊर्जा धरती के पारिस्थितिकी तंत्र और समुद्री जल के जरिए उष्णकटिबंधीय से उत्तरी ध्रुव की ओर भेजता है। इसमें भी करीब आधा पानी उत्तरी अटलांटिक सागर में जाता है। यह गर्म पानी तटों के साथ-साथ उत्तर की ओर बढ़ता और समुद्र में मिलता जाता है। इसके बाद यह पानी वापस दक्षिण की ओर आता है। इसमें क्षार की मात्रा बढ़ती जाती है। लिहाजा, समुद्र और धरती दोनों का तापमान बढ़ जाता है। एएमओसी तंत्र कमजोर पड़ने के कारण समुद्र तटीय इलाकों में समुद्र का पानी ज्यादा खारा हो रहा है, नतीजतन ताप एक समान मात्रा में धरती पर नहीं पहुंच रहा। यही वजह है कि इस बार दक्षिण-पश्चिम अमेरिका, यूरोप, भूमध्यसागरीय देश और चीन में ज्यादा गर्मी पड़ी।
मौसम में बदलाव का असर समुद्र की सतह पर भी दिखाई देने लगा है। इस असर से समुद्र की पारिस्थितिकी तंत्र के गड़बड़ाने का संकट है। समुद्र की ऐसी तलहटियों में आक्सीजन की मात्रा कम होती जा रही है, जहां पहले से ही आक्सीजन कम है। समुद्री आक्सीजन की गिरावट जारी रही, तो तय है कि ऐसे समुद्री जीवों के मरने का सिलसिला शुरू हो जाएगा, जिन्हें मनुष्य भोजन के रूप में इस्तेमाल करता है। खाद्यान्न की इस कमी के कारण भी समुद्र तटीय इलाकों से लोगों को पलायन करना पड़ेगा, जो पर्यावरण शरणार्थियों की संख्या में इजाफा करेगा। यह स्थिति समुद्री रेगिस्तान का विस्तार भी करेगी।
नए अनुसंधानों से पता चला है कि पिछले पचास वर्षों में समुद्रों में ऐसे क्षेत्रों का विस्तार हुआ है, जहां आक्सीजन की मात्रा में आशातीत कमी दर्ज की गई है। ऐसी आशंका जताई गई है कि इसका सीधा संबंध वैश्विक जलवायु परिवर्तन से है। दरअसल, समुद्र की एक निश्चित गहराई पर आक्सीजन की मात्रा की न्यूनतम परत होती है। यह परत ऊपर नीचे दोनों तरफ फैल रही है। आमतौर पर जलवायु परिवर्तन के नमूनों से पता चलता है कि मानवीय क्रियाकलापों के कारण समुद्री सतह गर्म होगी, तो समुद्री पानी के मंथन की स्वाभाविक दिनचर्या प्रभावित होगी। ऐसा होने पर भीतर के पानी में आक्सीजन नहीं पहुंचेगी।
जर्मनी के क्रिएल विश्वविद्यालय के प्रोफेसर लोथर स्ट्रामा के नेतृत्व में किए गए एक अनुसंधान से पता चला है कि उक्त प्रक्रिया आरंभ हो चुकी है। स्ट्रामा और उनके साथियों ने तीन महासागरों में जगह-जगह पर 300 से 700 मीटर तक की गहराई में स्थित परत पर आक्सीजन की मात्रा को वैज्ञानिक तरीकों से नापा। इन आंकड़ों से मालूम हुआ कि पिछले पचास वर्षाें में समुद्र की इस परत में आक्सीजन की मात्रा घटती गई है। गौरतलब है कि ये समुद्री रेगिस्तान उन समुद्री मृत क्षेत्रों से अलग हैं, जहां धरती से बहकर आने वाले नाइट्रोजन उर्वरकों की वजह से अचानक शैवाल की वृद्धि होती है। फिर यह शैवाल मरने लगता है। इन मृत शैवालों पर बैक्टीरिया की वृद्धि होती है। अपनी वृद्धि के दौरान बैक्टीरिया आक्सीजन सोख लेते हैं। यानी ज्यादा से ज्यादा पोषण की वजह से आक्सीजन खत्म हो जाती है।
आक्सीजन की घटी हुई मात्रा के आधार पर प्रशांत महासागर के पूर्वी कटिबंधीय भाग और हिंद महासागर के उत्तरी भाग को अर्ध-विषैला कहा जाता है। यहां आक्सीजन की मात्रा इतनी कम हो चुकी है कि पारिस्थितिकी पर असर पड़ने लगा है। ऐसे अर्ध-विषैले पानी में इतनी आक्सीजन नहीं होती कि नाइट्रोजन उससे क्रिया करके नाइट्रेट का निर्माण कर सके, जो कई जीवों के लिए पोषण का स्रोत होता है। इसकी अनुपस्थिति में सूक्ष्म जीवों (प्लवक) को पोषण नहीं मिल पाता। गौरतलब है कि ये प्लवक ही समुद्री पारिस्थितिकी तंत्र में पोषण का बुनियादी आधार हैं। इन्हीं सूक्ष्म जीवों को आहार बनाकर मछलियों की अनेक प्रजातियां अपना जीवन चक्र जारी रखती हैं। अगर इन मछलियों का जीवन प्रभावित होगा तो स्वाभाविक है खाद्य संकट गहराएगा।
विभिन्न अध्ययनों से पता चला है कि सन 2050 तक भारत का धरातलीय तापमान तीन डिग्री सेल्सियस से ज्यादा बढ़ चुका होगा। सर्दियों के दौरान यह उत्तरी और मध्य भारत में तीन डिग्री सेल्सियम तक बढ़ेगा, तो दक्षिण भारत में दो डिग्री तक। इससे हिमालय के शिखरों से बर्फ पिघलने और वहां से निकलने वाली नदियों में जल बहाव तेज हो जाएगा। इसके चलते मध्य भारत में सर्दियों के दौरान वर्षा में दस से बीस फीसद की कमी आ जाएगी और उत्तरी पश्चिमी भारत में तीस फीसद तक। अध्ययन बताते हैं कि इक्कीसवीं सदी के अंत तक भारत में वर्षा सात से दस फीसद बढ़ेगी, लेकिन सर्दियां कम हो जाएंगी।
होगा यह कि पानी कुछ ही दिनों में इतना बरसेगा कि बाढ़ का खतरा बढ़ जाएगा और दिसंबर, जनवरी और फरवरी में वर्षा बेहद कम होगी। जबकि प्राकृतिक खेती के लिए इस बारिश की भी जरूरत होती है। हिमालय की करीब पचास जीवनदायी हिमनद झीलें अगले पांच वर्षों में अपने किनारे तोड़कर मैदानी इलाकों को जलमग्न कर सकती हैं, जिससे करोड़ों का जीवन खतरे में पड़ सकता है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (यूएनडीपी) के वैज्ञानिकों ने खुलासा किया है कि बढ़ते तापमान के कारण हिमनदों के पिघलने से नेपाल की बीस और भूटान की चौबीस हिम झीलों का पानी उफान पर है। अगले पांच वर्षों के दौरान हिमालय की इन चौवालीस हिम झीलों से निकला पानी नेपाल और भूटान के साथ-साथ भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्रों और अन्य पड़ोसी देशों को भी लील सकता है।
जलवायु में निरंतर हो रहे परिवर्तन से दुनिया में पशु-पक्षियों की बहत्तर फीसद प्रजातियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है। ‘वर्ल्ड वाइल्डलाइफ फंड’ की ताजा रपट के अनुसार उन्हें बचाने के लिए अभी समय है। केन्या में संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में जारी प्रतिवेदन के अनुसार पर्यावरण में हो रहे विश्वव्यापी विनाशकारी परिवर्तन से सबसे ज्यादा खतरा कीटभक्षी प्रवासी पक्षियों, हनीक्रीपर और ठंडे पानी में रहने वाले पक्षी पेंगुइन के लिए है। पक्षियों ने संकेत देना शुरू कर दिया है कि धरती और समुद्र के बढ़ते तापमान ने दुनिया के जीवों के पारिस्थितिकी तंत्र में सेंध लगा दी है।
समुद्र के जलस्तर में पिछली एक सदी में हुई वृद्धि चिंता पैदा करने वाली है।
वैज्ञानिकों के एक समूह ने कहा है कि मानव जनित कारणों से हो रही ‘ग्लोबल वार्मिंग’ के चलते पिछली एक सदी में समुद्री जलस्तर इतनी तेजी से चढ़ा है, जितना पिछली सत्ताईस सदियों में भी नहीं बढ़ा। वर्ष 1900 से 2000 तक वैश्विक समुद्री जलस्तर 14 सेमी बढ़ा है। उल्लेखनीय है कि तुलनात्मक तौर पर आज वैश्विक औसत तापमान उन्नीसवीं सदी के अंत के तापमान से एक डिग्री सेल्सियस ज्यादा है। ग्लोबल वार्मिंग के खतरे को लेकर वैज्ञानिकों द्वारा दी गई यह चेतावनी हमें एक बार फिर से अपने विकास माडल पर पुनर्विचार का आग्रह करती है। बेशक हमारी वैज्ञानिक खोजों ने मानव जाति का जीवन बहुत आसान कर दिया है, उसे सुख-सुविधा से भर दिया है, लेकिन उससे मनुष्येतर प्राणियों और पर्यावरण को भारी क्षति हुई है।